’महाजनो येन गतः..’ वाला मार्ग
भरी भीड़ वाला मार्ग है
नहीं रुचता मुझे,
जानता हूँ
यह रीति-लीक-पिटवइयों की निगाह में
निषिद्ध है, अशुद्ध है ।
चिन्ता क्या !
मेरी इस रुचि में (या अरुचि में)
बाह्य और आभ्यन्तर,
प्रेरणा और व्यापार की साधु-मैत्री है ।
मैं हठी हूँ,
जानता हूँ क्षिप्र भी हूँ
तो क्या !
सोचता ही हूँ कहाँ मैं
निन्दा और स्वीकृति, विधि और निषेध को
साहसी हूँ ,
औ’ विजेता हूँ
लोक-लज्जा से उफनती भीरुता का ।
मैं स्वलक्षण-शील हूँ ।
सोचता ही हूँ कहाँ मैं
निन्दा और स्वीकृति, विधि और निषेध को
साहसी हूँ ,
औ’ विजेता हूँ
लोक-लज्जा से उफनती भीरुता का ।
मन के अन्तर्दुअन्द की सुन्दर अभिव्यक्ति शुभकामनायें
बहुत उम्दा!
वाह..!!
आपको देखकर तो नहीं लगता कि आप…
सोचता ही हूँ कहाँ मैं
निन्दा और स्वीकृति, विधि और निषेध को
साहसी हूँ ,
औ’ विजेता हूँ
लोक-लज्जा से उफनती भीरुता का ।
मैं स्वलक्षण-शील हूँ ।
यदि वास्तव में ऐसा है तो ..तो फिर नमन है…बड़ी हूँ तो क्या….ऐसा विशिष्ठ व्यक्तित्व हर आयु में आदर के योग्य है..
आपकी कालजायी रचना है यह…आज तो सचमुच आपकी लेखनी मुखर हुई है…लगता है बहुत दिनों का ताप ..अवसर की ताक में था…
अच्छा है भावनाओं की मसि कविता की कागद पर बिखर गई…और हम भाग्यशाली….मन की उंगलिओं से टोह रहे हैं..
आभार..
चरैवेति।
I shall dwell upon all the roads
wherever sun rays reach !
स्वान्त: सुखाय का भाव परिलक्षित हो रहा है..
भीड़ से अलग
अप्रतिम….!
बढ़िया अभिव्यक्ति ! शुभकामनायें !!
This comment has been removed by the author.
'अदा जी' ने सही और बहुत सुंदर तरीके से कहा है "भावनाओं की मसि कविता की कागद पर बिखर गई…और हम भाग्यशाली….मन की उंगलिओं से टोह रहे हैं".
बहुत सुंदर रचना, बहुत गहरे भाव लिये
''साहसी हूँ ,
औ’ विजेता हूँ
लोक-लज्जा से उफनती भीरुता का ।''
.
लय – प्रेमी यहाँ आयें और देखें लय क्या होती है ..
पूरी कविता का शिल्प 'चउचक' है !
यह साहस है युद्ध के मैदान में रण-रत चन्द्रवरदाई का !
jarooree है ki यह saahas aage bhee bana rahe … aabhar ,,,
मैं हठी हूँ,
जानता हूँ क्षिप्र भी हूँ
तो क्या !
सोचता ही हूँ कहाँ मैं
निन्दा और स्वीकृति, विधि और निषेध को
साहसी हूँ ,
औ’ विजेता हूँ
लोक-लज्जा से उफनती भीरुता का ।
मैं स्वलक्षण-शील हूँ ।
behad sundar lagi ye panktiyan
ओह,
I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I–
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference
…Robert Frost
लकीर के फकीर नई राह नहीं दिखाते..
साहसी भीड़ बन चलना नहीं चाहते..
आलोचना तो 'तुलसी' की भी हुई थी
डरते! तो क्या यूँ जगमगाते!
—साहस के साथ कहना कि "मैं स्वलक्षण-शील हूँ"
बड़ी बात है. पाठकों के मन में, उम्मीद की किरण बन आई श्रेष्ठ कविता.
…बधाई.
मैं स्वलक्षण-शील हूँ …
वाह,क्या कहने हैं.
स्वलक्षण-शील होना भी सबके बस की बात कहाँ है…? यह तो आप जैसे साहसी और क्षिप्र के वश में ही है. अपना रास्ता खुद बनाना निश्चित ही अत्यधिक साहस का कार्य है और लोकनिन्दा से न डरना भी. उत्तम रचना.
बहुत मननयोग्य मगर दुरुह और चक्रिल बात कही आरंभिक पंक्तियों मे..वर्तुल भँवर की तरह..मगर भँवर से जूझते हुए मार्ग तलाश कर लेना भी तो अभिप्राय होता है स्वलक्षण-शील होने का…नही?
कुछ अलग तरह की रचना है । जैसे श्रीकांत वर्मा को पढ-अते हुए महसूस किया था ..
पथरीली कंटीली लांछनो वाली निर्जन राह चुनी मैंने …
संकल्प लिया है नव सृजन के इतिहास का
बंधी लीक पर चल कर तो इतिहास बना नहीं करते …
शुभ हो ….!!
Please tell exact meaning of स्वलक्षण-शील. I can only guess.
लीक छोड तीनो चले कायर सिंह सपूत
वो क्या दिखायेगे राह मुझको जिन्हे खुद अपना पता नही है
मै खुद ही अपनी तलाश मे हू मेरा कोई रहनुमा नही है
लोक लज्जा ने ही हमे पतनशील बना कर कही का नही रखा है
आप ने अपनी स्वलक्षणशीलता की घोषणा कर दी साधुवाद
कहब लोकमत साधुमत नृपनय निगम निचोर!
इन सभी मापदंडों को देखना होगा न ?
’महाजनो येन गतः..’ वाला मार्ग
भरी भीड़ वाला मार्ग है
नहीं रुचता मुझे…
bade dino baad iadhar aana hua aur dekha to kya kamaal dhaa rahe ho himanshu bhaiya..
@ benaami ji – swalakshansheel is similar to "having my own characteristics" (just like "originality of behavior")