तुम क्यों उड़ जाते काग नहीं !
व्याकुल चारा बाँटते प्रकट क्यों कर पाते अनुराग नहीं ।
दायें बायें गरदन मरोड़ते गदगद पंजा चाट रहे
क्या मुझे समझते वीत-राग फागुन की बायन बाँट रहे,
हे श्याम बिहँग, इस कवि-मन की क्या कभी बुझेगी आग नहीं ।
उतरा न नींद का नशा तभीं निर्भीक चले आते हो तुम
अटपटी ग्राम्य-भाषा में प्रिय ! जाने क्या-क्या गाते हो तुम,
उपवन की खग-संगीत-मंडली में क्या तेरा भाग नहीं ।
कैसा लाये हो संदेशा, सखि-पाती मधु-छंदी क्या है
लोटते धूल में उछल-उछल प्यारे इतनी जल्दी क्या है,
क्या इसी बहाने मुझे सिखाते प्रिया-प्रीति में दाग नहीं ।
पक्षी मुझको इंगित कर यह मसखरी किया करते हो क्यों
निज-नीड़ बीच पिक तनय धरोहर तुम चुपके धरते हो क्यों,
तेरी रानी में क्या बच्चों की ममता जाती जाग नहीं ।
आये ही हो तो हे चिरई ! फिर कल आ जाना पौ फटते
तुमसे खुलकर सब बतला दूँगा कैसे मेरे दिन कटते,
कह देना सजनी से क्यों आता उसको याद सुहाग नहीं ।
तुम क्यों उड़ जाते काग नहीं !
waah kavita kae saath animated chitr bhi haen subhan aalaah
आये ही हो तो हे चिरई ! फिर कल आ जाना पौ फटते
तुमसे खुलकर सब बतला दूँगा कैसे मेरे दिन कटते,
कह देना सजनी से क्यों आता उसको याद सुहाग नहीं….
अन्तत : इन लाइनों नें भाव विभोर कर दिया .
आये ही हो तो हे चिरई ! फिर कल आ जाना पौ फटते
तुमसे खुलकर सब बतला दूँगा कैसे मेरे दिन कटते,
चिरई 'काग' के माध्यम से व्यक्त करने का यह अद्भुत अन्दाज़
बेहतरीन
बहुत सुन्दर कविता. बधाई.
बहुत सुन्दर कविता और भाव भी -वह हिमांशु
सजनी -सजन का शाश्वत प्रेम भाव मुखरित हो आया है कविता में
कविता ने भाव विभोर कर दिया…. बहुत ही सुंदर कविता….
खूबसूरत भावों से सजी सुन्दर रचना…
बहुत सुंदर भाव लिये है आप की यह कविता
अति सुन्दर!
वाह भाई हिमांशु जी, बहुत सुंदर.
भाव वही हैं – प्रतीक बदल रहे हैं। पहले वह काग किया करते थे, अब मोबाइल और एसएमएस किया करते हैं।
एक दशक में शायद सुनने को मिले – मोबैलिया काहे न लाता पिया का एसएमएस!
वाह वाह, इस कविता को पढ़कर तो वो पुराना गाना याद आ गया- "मोरी अटरिया पे कागा बोले, मोरा जीया डोले कोई आ रहा है."
वहाँ कागा सन्देशा लेकर आया था और यहाँ लेकर जायेगा–काक दूत.
अपि च, ये एनीमेटेड काग तो अत्यधिक मनमोही है.
वाह!
बहुत अच्छी लगी यह कविता.
लेकिन यह तो बताएं कि यह मुंडी हिलाने वाले काग के चित्र ने कविता का सृजन किया या कविता ने चित्र को ढूँढ निकाला !
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
'' क्या करूँ कहाँ जाऊं ? दिल्ली या उज्जैन ? ''
चिरई-चुरूङ्ग की भाषा कवि ही तो समझेंगे और हमें समझा दिया करेंगे ऐसे ही !
आपकी कविता की तारीफ अब कितनी करे …नए शब्द कहाँ से ढूंढ कर लायें ….
काक से सन्देश पहुँचाने की नौबत आ गयी अब तो…पधारी नहीं अभी तक दिया बाती करने वाली ….:):)
वाकई, भावविभोर करती रचना!
बहुत सुन्दर रचना हिमांशु जी……..अच्छे शब्दों के साथ भावनाओं की यह जुगलबंदी बहुत जँच रही है.
निज-नीड़ बीच पिक तनय धरोहर तुम चुपके धरते हो क्यों,
तेरी रानी में क्या बच्चों की ममता जाती जाग नहीं ।
बहुत ही अच्छा…!
संजोग से आज मैं भी कुछ इसी तरह का पोस्ट करने वाली थी. अब कल करूँ शायद…!
क्या कल्पना है! हिमांशु जी! साधु! वाह!
बसन्त के मौसम में प्रायः लोग पिक को याद करते हैं लेकिन आपने काग के माध्यम से जिन कोमल भावों का संचार किया है वह प्रशंसनीय है।
सादर