प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक महत्वपूर्ण, रोचक लेख पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि: साहित्य क्यों? – The premature obituary of the book : Why Literature का हिन्दी रूपान्तर। ‘लोसा’ साहित्य के लिए आम हो चली इस धारणा पर चिन्तित होते हैं कि साहित्य मूलतः अन्य मनोरंजन माध्यमों की तरह एक मनोरंजन है, जिसके लिए समय और विलासिता दोनों पर्याप्त जरूरी हैं। साहित्य-पठन के निरन्तर ह्रास को भी रेखांकित करता है यह आलेख। इस चिट्ठे पर क्रमशः सम्पूर्ण आलेख हिन्दी रूपांतर के रूप में 7 किश्तों में उपलब्ध होगा। आज प्रस्तुत है चौथी किश्त!
पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि: साहित्य क्यों? – मारिओ वर्गास लोसा
साहित्य ने अपनी ग्राह्यता प्रेम इच्छाओं और काम-कलापों में भी स्वीकृत करा दी है। यह कलात्मक रचना का स्तर बनाये रखता है। साहित्य के बिना कामोद्दीपन रह ही नहीं सकता है। प्रेम और आनन्द और दीन हो जायेंगे। उनकी नजाकत, उनकी सटीक चोट क्षीणतर होती चली जायेगी। वे उस गहनता की उपलब्धि से वंचित रह जायेंगे जो साहित्यिक कल्पना प्रदान करती है।
न तो श्रव्य-दृश्य माध्यम में ही वह सामर्थ्य है कि साहित्य को अपने उस स्थान से च्युत कर दे जो मानव को पूर्ण विश्वास और पूर्ण कौशल के साथ यह सिखाता है कि भाषा के गुंफन में असाधारण रूप से अपार समृद्ध संभावनायें सन्निहित हैं। उल्टे श्रव्य-दृश्य संप्रेषण के माध्यम, जहाँ तक कल्पना का, बिम्बों का सम्बन्ध है, शब्दों को दोयम नम्बर पर पदावनत करके रख देते हैं जो संप्रेषण का मूलभूत तत्व है, और ये भाषा को उसके उस वाचिक प्रस्तुतीकरण से बहुत-बहुत दूर रख देते हैं जो उसका लिखित आयाम है। किसी फिल्म या टेलीविजन के कार्यक्रम को ‘साहित्यिक परिभाषित करने को मजेदार रूप में यह कहेंगे कि यह उबाऊ है। यही कारण है कि रेडियो या टॆलीविज़न के साहित्यिक कार्यक्रम शायद ही लोगों को अपने में बाँध पाते हैं। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इस नियम का अपवाद फ्रांस में बर्नार्ड पायवट (Bernard Pivot) का साहित्यिक कार्यक्रम ‘एपास्ट्राफीज’ (Apostrophes) था। और यह मुझे सोचने के लिए प्रोत्साहित करता है कि पूर्ण ज्ञान और पूर्णतः भाषा पर अधिकार के लिए साहित्य न केवल अपरिहार्य है, बल्कि पुस्तकों का भाग्य भी इसी से सम्बन्धित होकर सुरक्षित है जिसे व्यावसायिक उत्पाद इन दिनों प्रयोगवाह्य घोषित कर रहे हैं।
काग़जों और क़िताबों के अन्त की उद्घोषणा का सच
यह सोचना मुझे बिल गेट्स (Bill Gates) की ओर आकर्षित कर रहा है। बहुत दिन नहीं हुए वह मैड्रिड में थे। उन्होंने उस रायल स्पैनिश एकेडमी (Royal Spanish Academy) का भ्रमण किया जिसने माइक्रोसॉफ्ट पर साहसपूर्ण संयुक्त रूप से नया कार्य किया। अन्य दूसरी चीजों के बीच गेट्स ने एकेडमी के सदस्यों को विश्वस्त किया कि वह व्यक्तिगत रूप से यह गारंटी देंगे कि कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर से ‘N’ शब्द को कभी भी हटाया नहीं जा सकता। यह एक ऐसी प्रतिज्ञा थी जिससे पाँच महाद्वीपों के स्पैनिश बोलने वाले चार सौ करोड़ व्यक्तियों ने राहत की साँस ली, क्योंकि इतने आवश्यक अक्षर का साइबर स्पेस से देश निकाला एक अत्यंत विशाल समस्या सृजित कर देता। स्पैनिश भाषा के लिए सौहार्दपूर्ण छूट का स्थान बनाने के तुरंत बाद और एकेडमी परिसर के बाहर निकलते हुए भी उन्होंने एक प्रेस कॉन्फरेंस में यह प्रतिज्ञा की कि अपने उच्चतम आदर्श को अपनी मृत्यु के पहले वह स्थापित कर देने की अभिलाषा रखते हैं। वह लक्ष्य क्या था, इसको स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, कि वह लक्ष्य कागज और फिर किताबों का अंत कर देना है।
अपने निर्णय में उन्होंने कहा है कि पुस्तकें समयानुकूल नहीं, दोष से पूर्ण हैं। उनका तर्क था कि कम्प्यूटर की स्क्रीन कागज को उसके द्वारा किए जाने वाले अबतक के समस्त कार्यों के साथ उसके स्थान से च्युत कर सकती है। उनका इस पर भी बल था कि कम कठिन और कम प्रयत्न-साध्य होने के अतिरिक्त कम्प्यूटर कम स्थान घेरते हैं, उन्हें आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जा सकता है, और यह भी कि समाचार-पत्रों और पुस्तकों के स्थान पर इन इलेक्ट्रिक माध्यमों से समाचार देने या साहित्य संप्रेषित करने में पर्यावरण सम्बन्धी लाभ भी हैं। जंगलों का विनाश, जो कागज उद्योग की प्रेरणा का दुष्फल है, रुकता है। गेट्स ने अपने श्रोताओं को विश्वास दिलाया कि वे कम्प्यूटर स्क्रीन पर पढ़ेंगे और परिणामतः वातावरण में पहले की अपेक्षा और अधिक ‘क्लोरोफिल’ उपस्थित रहेगी।
‘बिल गेट्स’ के इस छोटॆ से संभाषण के समय मैं उपस्थित नहीं था। प्रेस के द्वारा मुझे सब कुछ मालूम हुआ। यदि मैं वहाँ होता तो मैं गेट्स के उन इरादों पर जो वह निर्लज्जतापूर्वक मेरे सहयोगियों, बेरोजगार लेखकों के लिए उद्घोषित कर रहा था, घोर अरुचि और अनिच्छा अभिव्यक्त करता. मैं दृढ़तापूर्वक स्पष्ट रूप से उनके विश्लेषण विरोध में उठ खड़ा होता।
Mario Vargas Llosa
पेरू के प्रतिष्ठित साहित्यकार। कुशल पत्रकार और राजनीतिज्ञ भी। वर्ष २०१० के लिए साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता।
जन्म : २८ मार्च, १९३६
स्थान : अरेक्विपा (पेरू)
रचनाएं : द चलेंज–१९५७; हेड्स – १९५९; द सिटी एण्ड द डौग्स- १९६२; द ग्रीन हाउस – १९६६; प्युप्स –१९६७; कन्वर्सेसन्स इन द कैथेड्रल – १९६९; पैंटोजा एण्ड द स्पेशियल -१९७३; आंट जूली अण्ड स्क्रिप्टराइटर-१९७७; द एण्ड ऑफ़ द वर्ल्ड वार-१९८१; मायता हिस्ट्री-१९८४; हू किल्ड पलोमिनो मोलेरो-१९८६; द स्टोरीटेलर-१९८७;प्रेज़ ऑफ़ द स्टेपमदर-१९८८;डेथ इन द एण्डेस-१९९३; आत्मकथा–द शूटिंग फ़िश-१९९३।
क्या कम्प्यूटर स्क्रीन पुस्तकों का स्थान ले सकती है?
क्या सचमुच कम्प्यूटर स्क्रीन हर दृष्टिकोण से पुस्तकों का स्थान ले सकती है? मुझको इतना निश्चित विश्वास नहीं होता। नयी तकनीक, जैसे इन्टरनेट ने संचार और सूचना के क्षेत्र में कितनी बड़ी क्रान्ति कर दी है, मैं इससे पूरी तरह अवगत हूँ, और मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इन्टरनेट असाधारण रूप से मेरे दैनिक कार्य में प्रतिदिन सहायता करता है। लेकिन इन असाधारण सुविधाओं के लिए मेरी कृतज्ञता मुझे इस विश्वास से नहीं भर सकती कि इलेक्ट्रॉनिक स्क्रीन कागज का स्थान ले सकती है, या कम्प्यूटर स्क्रीन पर पढ़ना साहित्यिक पठन की बराबरी कर सकता है। इनके बीच की गहरी खाई को मैं लाँघ नहीं सकता। मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता कि अनौपचारिक या अयथार्थवादी पठन जिसको किसी सूचना या लाभप्रद किसी तात्कालिक संवाद की आवश्यकता नहीं है, वह कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सपनों को,शब्दों के आनन्द को उसी समुत्तेजना, उसी निकटता, उसी मानसिक एकाग्रता और आत्मिक एकान्त के साथ सम्बन्ध कर सकता है जैसा कि एक पुस्तक के पढ़ने की क्रिया द्वारा उपलब्ध होता है.
यह पूर्वाग्रह शायद अभ्यास की कमी और साहित्य का पुस्तकों और कागजों से लम्बे समय तक सम्बन्धित रहने के कारण उपजा है. मैं यद्यपि विश्व-समाचार जानने के लिए वेब-सर्फिंग का आनन्द लेता हूँ, लेकिन मैं स्क्रीन पर ‘गंगोरा’ (Gongora) की कवितायें पढ़ने, या ‘ऑनेटी’ (Onetti)का उपन्यास पढ़ने या ‘पाज’ (Paz)का लेख पढ़ने नहीं जाऊँगा, क्योंकि मैं पूरी तरह विश्वस्त हूँ कि इस पठन का प्रभाव उस पठन के समान नहीं होगा. मुझे विश्वास है, यद्यपि मैं इसे सिद्ध नहीं कर सकता, कि यदि किताबें गुम हुईं तो साहित्य को एक गहरा धक्का लगेगा, और उसे नैतिक आघात भी मिलेगा. वास्तविकता तो यह है कि फिर भी ‘साहित्य’ शब्द का कभीं लोप नहीं हो सकता. इसका निश्चित ही प्रयोग उस पाठ्य वस्तु के लिए किया जाता रहेगा जिसका दूर-दूर तक, जिसे आज हम साहित्य समझते हैं, उससे सम्बंध नहीं होगा, ठीक वैसे ही जैसे ‘सोफोकल्स’ (sophocles) और ‘शेक्सपियर’ (Shakespeare) के दुःखान्त नाटक धारावाहिकों के रूप में प्रस्तुत हो रहे हैं.
एक दूसरा भी कारण है जिसके चलते राष्ट्रों के जीवन में साहित्य का स्थान स्वीकृत किया जाएगा. बिना इसके उस आलोचनात्मक मस्तिष्क की अपूरणीय क्षति होगी जो ऐतिहासिक परिवर्तन का वास्तविक संवाहक है और स्वतंत्रता का सर्वोत्तम संरक्षक है. ऐसा इसलिए है कि सभी उत्तम साहित्य क्रान्तिकारी परिवर्तक होता है, और जिस संसार में हम रह रहे हैं उसके सम्बंध में क्रान्तिकारी प्रश्नों को बनाये रखता है. सभी उत्तम साहित्यिक रचनाओं में, चाहे लेखक का इरादा रहा हो या न रहा हो, तल्लीन कर लेने की शक्ति की ओर ओर झुकाव बना ही रहता है.
क्रमशः– पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The premature obituary of the book)-5
इस हिन्दी रूपांतर को पूर्णतः निम्न प्रविष्टियों के माध्यम से पढ़ा जा सकता है
जाने इस ब्लॉग को कब पढ़ सकूँगा और किन आबे हयात से महरूम हूँ.
लोसा का यह कथन सही है कि कम्पूटर स्क्रीन पुस्तक का स्थान नहीं ले सकती.. वह शब्द के साथ वैसी तादात्म्यता, एकात्मता स्थापित नहीं करवा सकती .. स्क्रीन, स्क्रीन रहेगी.. पुस्तक, पुस्तक रहेगी.. कम्पूटर एक हडबडी है जबकि पुस्तक के पास एक स्थायी और शांत मुद्रा है.. आपका बहुत बहुत आभार ऐसे लेख को अनुवाद करके हम तक प्रेषित करने के लिए ..
बहुत दिनों के बाद तुम्हे पढना बहुत अच्छा लगा….
लेख तो लेख ही है, जरूरी नहीं कि वह सत्य हो जाए।
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त्रिया चरित्र : मीनू खरे
संगीत ने तोड़ दी भाषा की ज़ंजीरें।
बहुत मन लगा कर यह शृंखला पढ़ रहा हूँ। जाने क्यों लेंठड़े का यह प्रवचन याद आ गया!
लंठ महाचर्चा: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी…
जिस लगन से आप ने अनुवाद किया है,वह अनुकरणीय है।
हम लोग काग़ज़ वाले युग से ई बुक्स की सीढ़ी लाँघ पाएँगे या नहीं इसमें शक़ ही है। लिहाज़ा लेखक की भावनाएँ मन के अनुकूल लगती हैं। पर नई पीढ़ी इसे लाँघती नज़र तो आ रही है। भविष्य में क्या होगा ये तो वक़्त ही बताएगा।
इस बेहतरीन अनुवादित श्रृंखला के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
बेहतरीन शृंखला… फुर्सत मिलते ही इस पूरी शृंखला को पढ़ूंगा.. कई दिन बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ.. तकनीकी रूप से यह काफी सुदृढ़ है..
हैपी ब्लॉगिंग
बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने, लेकिन किताबे हमेशा रहेगी, हां कम चाहे हो जाये, लेकिन अपनी अहमियत नही खोयेगी. धन्यवाद
… saarthak abhivyakti !!!
बड़ा रोचक लग रहा है, पढ़ते रहने का मन है।
ध्यानपूर्वक सारी कडियों को पढना पडेगा !!
यह सही है कि इन्टरनेट साहित्य या पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकता , मगर महँगी पुस्तकों को पढने का एक सस्ता विकल्प जरुर हो सकता है …
रोचक शैली में इस अनुवाद को पढना सुखद लग रहा है …
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'एक शाम मेरे नाम' ब्लॉग से आपके ब्लॉग का पता मिला| सच मानिए, आपके ब्लॉग ने मेरे अंतर्मन को छू लिया| मैं आपके सारे ब्लॉग एक-एक करके पढने वाला हूँ; शुरू से| और आपके पिताजी द्वारा गीतांजलि का भावानुवाद – शब्द नहीं हैं मेरे पास! अभी तक मेरा विश्वास था कि अब हिंदी में अच्छे अनूदित रचनाओं का अभाव हो गया है, लेकिन गीतांजलि के भावानुवाद ने मुझे गलत सिद्ध कर दिया| बहुत-बहुत धन्यवाद आपका|
शुरू से ये श्रृंखला पसंद आ रही है. इस कड़ी में किताबों और कंप्यूटर के द्वंद्व से थोड़ी असहमति है. कम्पूटर स्क्रीन किताबों की जगह नहीं ले सकता पर भविष्य में आने वाले बुक रीडर? मैं अभी भी किताबें ही पढता हूँ पर लगता है कुछ दिनों में पुस्तक की फील दिलाने वाले रीडर आ जायेंगे.
बहुत सुंदर।