प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक महत्वपूर्ण, रोचक लेख का हिन्दी रूपान्तर। ‘लोसा’ साहित्य के लिए आम हो चली इस धारणा पर चिन्तित होते हैं कि साहित्य मूलतः अन्य मनोरंजन माध्यमों की तरह एक मनोरंजन है, जिसके लिए समय और विलासिता दोनों पर्याप्त जरूरी हैं। साहित्य-पठन के निरन्तर ह्रास को भी रेखांकित करता है यह आलेख। इस चिट्ठे पर क्रमशः सम्पूर्ण आलेख हिन्दी रूपांतर के रूप में उपलब्ध होगा। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी के बाद प्रस्तुत है पांचवी कड़ी।
वे लोग जो अपनी नियति से ही संतुष्ट हैं, अपने उसी जीवन से संतोष कर लेते हैं जैसा वे जी रहे हैं, तो उनके लिए साहित्य में कहने के लिए कुछ भी नहीं है। साहित्य तो क्रान्तिकारी आत्मा का भोजन है, साहित्य अनिश्चितताओं का ध्वजवाहक है, ऐसे प्राणियों की शरणस्थली है जिनके जीवन में बहुत कुछ है या बहुत कुछ नहीं है। अप्रसन्नता और अपूर्णता से पिण्ड छुड़ाने के लिए साहित्य अभयारण्य है। मंथर गति ‘रोसिनेंट’(Rocinante) के किनारे अश्वारोहण करना और दिग्भ्रमित शूरमा के रूप में ‘ला मंक’ (La Mancha) के मैदानों में घूमना, ह्वेल की पीठ पर सवार होकर ‘कैप्टन अहब’ (Captain Ahab) के साथ सागर संतरण करना, ‘एम्मा बोवेरी’ (Emma Bovary) के साथ संखिया पी लेना, ‘ग्रेगर सम्सा’(Gregor Samsa) के साथ कीट-सा बन जाना – ये सभी ऐसे तरीके हैं जो हमने स्वयम् की त्रुटियों से एवं जीवन के अनुचित आरोपणों से निर्वस्त्र होने के लिए आविष्कृत कर लिए हैं, उस जीवन से मुक्त होने के लिए रचे हैं जो हमें हम जैसे हैं वैसे ही बने रहने के लिए बाध्य करता है, जबकि हम एक से अनेक होना चाहते हैं ताकि अपनी अनेक इच्छाओं को तृप्त कर सकें।
साहित्य हमारे प्रबल असंतोष को क्षणिक रूप में ही शांत कर सकता है, किन्तु इसी आश्चर्यमय स्थिति में, जीवन के इसी क्षणिक ठहराव में साहित्यिक घटाटोप हमें उठाकर इतिहास से बाहर पहुँचा देता है, और हम एक समयातीत लोक के निवासी हो जाते हैं, और इस तरह अमर हो जाते हैं। हम और और गंभीर, और वैभवशाली, और संश्लिष्ट होते जाते हैं और सामान्य जीवन की बँधी हुई दिनचर्या की अपेक्षा और सरल सुबोध होते जाते हैं। जब हम पुस्तक पढ़ना बन्द करते हैं और साहित्यिक उपन्यास से अलग होते हैं तो वास्तविक स्थिति में लौट आते हैं।
तुलना कीजिए इसकी और उस शानदार लोक की जहाँ से हम अभीं अभीं लौटे हैं. कितनी उदासी हमारी प्रतीक्षा करती होती है। साथ ही वह विराट अनुभूति भी हमारी प्रतीक्षा करती रहती है कि वह उपन्यास का मजेदार जीवन इस जीवन से कहीं अधिक अच्छा है, कहीं अधिक खूबसूरत है, अधिक फैलाव वाला है, अधिक सुगठित है। जब हम जगे हैं, तबके इस सीमाबद्ध एवं जटिल परिस्थितियों में जकड़े जीवन से वह जीवन कहीं अधिक पूर्ण है। इस प्रकार अच्छा साहित्य, वास्तविक साहित्य हमेशा अननुगामी, न दबने वाला और क्रान्तिकारी होता है, वह ‘जो है’ उसके प्रति एक चैलेन्ज के रूप में खड़ा होता है।
पेरू के प्रतिष्ठित साहित्यकार। कुशल पत्रकार और राजनीतिज्ञ भी। वर्ष २०१० के लिए साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता।
जन्म : २८ मार्च, १९३६
स्थान : अरेक्विपा (पेरू)
रचनाएं : द चलेंज–१९५७; हेड्स – १९५९; द सिटी एण्ड द डौग्स- १९६२; द ग्रीन हाउस – १९६६; प्युप्स –१९६७; कन्वर्सेसन्स इन द कैथेड्रल – १९६९; पैंटोजा एण्ड द स्पेशियल -१९७३; आंट जूली अण्ड स्क्रिप्टराइटर-१९७७; द एण्ड ऑफ़ द वर्ल्ड वार-१९८१; मायता हिस्ट्री-१९८४; हू किल्ड पलोमिनो मोलेरो-१९८६;द स्टोरीटेलर-१९८७;प्रेज़ ऑफ़ द स्टेपमदर-१९८८;डेथ इन द एण्डेस-१९९३; आत्मकथा–द शूटिंग फ़िश-१९९३।
‘वार एण्ड पीस(War and Peace) ‘ या ‘रिमेम्बरेंस ऑफ थिंग्स पास्ट’ (Remembrance of Things Past) पढ़ने के बाद हम उस संसार में लौटकर, जो तथ्यहीनता से खचाखच भरा है, चारों ओर से अवरोधक सीमाओं से आबद्ध है, कदम-कदम पर हमारे स्वप्नों को रौंद देने वाला है, हम ठगा हुआ सा महसूस नहीं कर सकते हैं? संस्कृति की निरंतरता बनाये रखने की आवश्यकता से अधिक भाषा को समृद्ध करने के लिए साहित्य का सर्वोत्तम अनुदान मानव की प्रगति में यही है कि यह संभवतः हमें स्मरण करा देता है (अधिकांश मामलों मे अनिच्छित ही), कि दुनिया बुरी ही बनी है। और जो बलवान और किस्मत वाले इसका उल्टा सोचने का बहाना बनाते हैं, वे झूठ बोलते हैं। झूठ बोलते हैं कि दुनिया को वैसे ही सुगठित किया जा सकता है, जैसा कि संसारों का सृजन कल्पना और शब्द करने में समर्थ हैं।
एक स्वतंत्र और प्रजातांत्रिक समाज में उत्तरदायी और संवेदनशील पुरुषों की नितान्त आवश्यकता है जो उस आवश्यकता के प्रति सतत सचेष्ट रहें जो उस जगत का जिसमें वे रहते हैं, सतत परीक्षण किया करे। यद्यपि है यह अधिकाधिक असंभव-सा कार्य, पर प्रयास किया करें कि जैसी दुनिया में हम रहना पसंद करेंगे करीब-करीब वैसी ही इस दुनिया को भी निर्मित कर दें। और अच्छे साहित्य के पठन के अतिरिक्त दूसरा कोई उत्तम साधन नहीं है जिससे असंतोष के अस्तित्व का उत्सर्जन किया जा सके; कोई उत्तम साधन नहीं है जिससे विवेचक एवं स्वतंत्र नागरिकों का निर्माण किया जा सके, उन नागरिकों का निर्माण जो अपने शासकों द्वारा संचालित न होते हों, और जिनमें स्थायी आत्मिक तरलता और गतिमयी कल्पनाशीलता हो।
फिर भी साहित्य को राज्यविद्रोही कहे जाने, क्योंकि यह संसार की अपूर्णताओं के प्रति पाठक की चेतना को संवेदनशील बनाता है, का अर्थ यह नहीं है- जैसा कि चर्च व राजसत्ताएँ सेंसरशिप कायम करते हुए अर्थ लगाती हैं- कि साहित्यिक कृतियाँ तत्काल उथल पुथल कर पैदा कर देंगी या क्रांति को और बढ़ावा देंगी। किसी कविता, नाटक या उपन्यास के भविष्य में घटित प्रभाव को नहीं सोच लेना चाहिए क्योंकि वे सामूहिक रूप से नहीं रचित होते, न उनका अनुभव सामूहिक होता है। वे व्यक्तियों के द्वारा रचित होते हैं और व्यक्तियों के द्वारा पढ़े जाते हैं। और उनके अंत भी अनेकों प्रकार के होते हैं जो उनकी रचनाओं से, उनके पठन से छन कर आते हैं।
अतः यह कठिन है और असंभव भी कि किसी एक ठोस धरातल की रचना हो. सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसी साहित्यिक रचना का सामाजिक परिणाम उसके सौन्दर्यशास्त्रीय गुण से बहुत कम मेल खाता हुआ हो सकता है। ‘हैरियट बीचर स्टो'(Harriet Beecher Stowe) का एक सामान्य सा उपन्यास भी संयुक्त राज्य (United States) में दासता के आतंक के विरोध में सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना उत्पन्न करता प्रतीत होता है। यह तथ्य कि साहित्य के ये प्रभाव पहचान में आने कठिन हैं यह नहीं बतलाते कि उनका अस्तित्व ही नहीं है। प्रमुख तथ्य यह है कि ये प्रभाव नागरिकों के क्रियाकलापों से उत्पन्न होते हैं जिनके व्यक्तित्वों का निर्माण कुछ हद तक पुस्तकों द्वारा हुआ है।
अच्छा साहित्य क्षणिक रूप में जहां मानव की असंतुष्टि को शमित करता है वहीं जीवन के प्रति आलोचनात्मक एवं अविश्वस्त धारणा का विकास करके इस असंतुष्टि को बढाता भी है। इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि साहित्य मानव जातियों को अधिकाधिक अप्रसन्न ही बनाता है। असंतुष्ट रहना, अपने अस्तित्व से जूझना उन चीजों की अपेक्षा करना है जो उपस्थित ही नहीं हैं, या किसी की व्यर्थ की लड़ाई लड़ने के लिए निंदा करना है, ऐसी लड़ाई जैसी कि कर्नल ‘ओरेलिआनो बुएंदिया’ (Aureliano Buendia) ने ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सालीटयूड’(One Hundred Years of Solitude) में लड़ी, यह जानते हुए भी कि वह उन सबको हार जाएगा। ये सब बातें सही हो सकती हैं।
फिर भी यह भी सही है कि जीवन की साधारण स्थिति एवं गन्दगी के विरुद्ध विद्रोह के बिना हम अभी भी आदिम युग में ही जीते और इतिहास ही अवरुद्ध हो गया होता, स्वायत्त व्यक्ति का ही सृजन न हो पाता, विज्ञान और तकनीकी का विकास ही न हुआ होता, मानव अधिकारों की पहचान ही न हो पाती, स्वतंत्रता का अस्तित्व ही नहीं रह पाता। ये सारी चीजें अप्रसन्नता से ही पैदा होती हैं, अपर्याप्त और असहनीय दर्शित जीवन के प्रति खुली अवज्ञा से ही पैदा होती हैं। इस भावना के लिए जो, जीवन जैसा है उससे नाराजगी से पैदा होती है, और पैदा होती है ‘डोन क्विजोट’ (Don Quixote) के उस पागलपन से जिसकी अपावनता बहादुरी भरे उपन्यास के पढ़ने से निकली, साहित्य ने एक भाला सरीखा काम किया है।
बहुत अच्छा काम किया। सब कड़ियों को एक साथ पढ़ेंगे शुरू से। एक सुझाव है कि सभी कड़ियों पर सभी कड़ियों के लिंक दे दिये जायें। पहली कड़ी पर भी, दूसरी पर भी और पांचवी पर भी ताकि हर एक से किसी भी कड़ी पर पहुंचा जा सके।
आदरणीय अनूप जी,
सुझाव सर माथे ! अभी जोड़ता हूँ सबमें सबके लिंक !
आपका आना खूब सुहाता है इस ब्लॉग को ! आभार .
साहित्य मन की अशान्ति को शीतलता सदियों से देता आया है, आगे भी देता रहेगा। माध्यम पुस्तक रहें या ब्लॉग।
… prabhaavashaalee post !!!
श्रृंखला की बाक़ी कड़ियां भी आज पढ़ीं.
मेरे एक मित्र के पिता, जो कि ब्यूरोक्रेट रहें हैं(और जिन्हें हम लोग 'बाबू' कह कर ज्यादा सुख पाते हैं) मेरे मित्र को उनकी नसीहत रही कि जब काम का दबाव होता है वही आपका रचनात्मक समय होता है. मैं उनकी बात से सहमत हूं. यह सोचकर कि समय होगा तो रचनाक्रम चल निकलेगा, सर्वथा मिथ्या ही लगता है. ठीक यही हाल पाठन का है. विभिन्न कड़ियों में कई और सार्थक प्रश्न भी हैं…पढ़वाने के लिए आपका आभार.
मेरा एंटी वायरस आपका ब्लॉग खुलने ही नहीं दे रहा था। आज अचानक खुल गया।
आपका यह कार्य सराहनीय है। बहुत कुछ पढ़ना शेष है। धीरे-धीरे सभी पढ़ता हूँ। …आभार।
आप को नमन।
आप को बस यह बताना है कि इस शृंखला ने मुझे बहुत बल दिया है।
आभार।
पढ़े जा रहे हैं… बस.
very inspiring and motivating post !