सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 7-11) की प्रविष्टि से आत्मविश्वास जगा, लोगों ने हाथोंहाथ लिया इस प्रस्तुति को। अब प्रस्तुत है सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 12-15)।
यह रचना संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य शंकर ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है सौन्दर्य लहरी में। पहली , दूसरी, तीसरी के बाद आज प्रस्तुत है चौथी कड़ी।
सौन्दर्य लहरी का हिन्दी भाव रूपांतर
त्वदीयं सौंदर्यं तुहिनगिरि कन्ये तुलयितुं ।
कवींद्राः कल्पंते कथमपि विरिंचि प्रभृतयः ॥
यदालोकौत्सुक्यादमरललना यांति मनसा ।
तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम् ॥१२॥
तुलित करने को तुम्हारा
अपरिमित सौन्दर्य अनुपम
विधातादि कवीन्द्र
किंचित कल्पनाओं में विचरते
समुद अवलोकन तुम्हारा
कर मनोगत वसुमती से
अमर ललनायें विलसतीं
सहज शिवसायुज्य पद पा
जो अगम है
जो परम दुष्प्राप्य भी
अति कठिन तप से
दर्शनोत्सुक सुरवधूटी के
परम सौभाग्य की यह
है चरम संसिद्धि
सद्यः संस्फुटित
हिमशैलजा हे! ॥12||
नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं ।
तवापांगालोके पतितमनुधावंति शतशः ॥
गलद्वेणीबंधाः कुचकलशविस्रस्तसिचया ।
हठात्त्रुट्यत्कांच्यो विगलितदुकूला युवतयः॥१३॥
जो जरठ वयशील
लोचन सुखदरस वंचित
महाजड़
वहाँ कायाकल्प करता
ललित कृपाकटाक्ष तेरा
स्खलित वेणीवंध
हटती कंचुकी कुचकुंभ द्वय से
भग्न होती किंकिणी
पट स्कंध से जाता सरक है
यों ललक
विगलित दुकूला
रमणियाँ, नवयौवनायें
दौड़ती उत्कंठिता उसकी दिशा में
कर्षिता-सी
यह तुम्हारी दृष्टि का फल है
कृपा करुणाकटाक्षे! ॥13॥
क्षितौ षट्पंचाशद्द्विसमधिकपंचाशदुदके ।
हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपंचाशदनिले ॥
दिवि द्विःषट्त्रिंशन्मनसि च चतुःषष्टिरिति ये ।
मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादांबुजयुगम् ॥१४॥
वसुमती में छिटकती हैं
जो कि छप्पन कान्त किरणें
सलिल में बावन
अमलद्युति वह्नि में
बासठ विराजित
वायु में चौवन
बहत्तर व्योम में
मन बीच चौसठ राजती हैं
तत्व तरलित
जो कि ज्योतिर्मयी किरणें
ऊर्ध्व उनके हैं विराजित
ललित मृदु पद-कंज तेरे
(भाव यह
तुम तत्वमयि हो, तुम्हीं तत्वातीत )
सुभगे! ॥14॥
शरज्ज्योत्स्नाशुभ्रां शशियुतजटाजूटमकुटां ।
वरत्रासत्राणस्फटिकघुटिकापुस्तककराम् ।
सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां सन्निदधते ।
मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणा भणितयः ॥१५॥
शरद की चाँदनी-सी
ज्योतिर्मयी तन शुभ्र आभा
खचित चन्द्र ललाम सिर पर
जटाजूट रचित मुकुट में
वराभय मुद्रा
स्फटिक मणिमाल
शोभित करतली में
पाणि पुस्तक युक्त
इस छवि का न यदि करते नमन तो
सुजन आनन से स्फुरित
किस विधि मधुर
मधु क्षीर द्राक्षा सदृश
बहती मंजुवाणी
देवि !
रुचिर स्वरुपिणी हे ! ॥15॥
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बहुत कुछ, न न लगभग सभ कुछ बचा हुआ है यहाँ पढने को, और इस कल-परसों के अपराध में महीनों से हूँ। बहुत ठहर के, रुक के, भीग के पढना है इसे।
अभी तो बस आपके इस उद्योग पर मुग्ध हूँ, धन्य हुआ।
लौटता हूँ।
अद्भुत मूल, सुन्दर काव्यानुवाद।
बहुत सुन्दर काव्यानुवाद| धन्यवाद|
अत्यन्त सुन्दर ! काव्यानुवाद कैसा होना चाहिए, इसका बोध हुआ. ध्वनि-मैत्री और शब्द-मैत्री का अतिशय आनन्द .
बहुत सुन्दर पद्यानुवाद हुआ है। बधाई!
क्या अन्वय भी दिया जा सकता है?
हिमांशु भाई,
आरजू चाँद सी निखर, जिन्दगी रौशनी से भर जाए, बारिशें हो वहाँ वे खुशियों की, जिस तरफ आपकी नजर जाए। जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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ओझा उवाच: यानी जिंदगी की बात…।
नाइट शिफ्ट की कीमत..
बहुत सुन्दर पद्यानुवाद हुआ है। बधाई!
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बहुत बाद में टिप्पणी कर रहा हूँ। वही बाते दोहरा के बोर नहीं करूँगा हालाँकि ये सही है कि तारीफ से कोई बोर नहीं होता।
मैं तो इस बात से खुश हूँ कि आप के इस सराहनीय प्रयास से मैं उन रचनाओं को भी पढ़ पाऊंगा जिनको मैं अपनी कमअक्ली के काराव कभी पढ़ नहीं पाता।
मेरे लिए लिखने के लिए धन्यवाद ।