’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है । आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आया...

सौन्दर्य लहरी के यह रूपान्तरित छन्द पहले मुक्त छन्द में लिखने शुरु किए थे । बाद में अमरेन्द्र के उचकाने पर छ्न्दबद्ध लिखने का प्रयास दूसरी प्रविष्टि में दिखा आपको । टिप्पणियाँ, मेल इनबॉक्स-दोनों ने छन्दबद्ध रूप से ज्यादा छन्दमुक्त रूप को सराहा । प्रयास तो यही था कि नियमित तीन चार छन्दों की प्रस्तुति से इस ग्रंथ को सम्पूर्णतः प्रस्तुत कर दूँगा, पर अनगिन व्यतिरेकों ने राह रोकी, मैं ठहरा ही रह गया । एकांत के क्षण जब खूब सघन होकर चेतना पर छा गए तो पुनः इस लहरी का सौन्दर्य स्मरण में आया । मैं सायास उपस्थित हूँ इन छन्दों को प्रस्तुत करने के लिए । ढंग वही मुक्त छंदी, आपको रुचिकर लगेगा, इसलिए ।
कवीन्द्राणां चेतःकमलवनबालातपरुचिं भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणामेव भवतीम् ।
विरिंचिप्रेयस्यास्तरुणतरश्रृंगारलहरी-
गभीराभिर्वाग्भिर्विदधति सतां रंजनममी ॥16॥
कमल कानन सदृश
कविवर चित्त किसलय पुट विकासिनि
तुम नवल रवि सदृश
कोई हर्षदा अरुणिम विभा हों
बाल दिनमणि सम तुम्हारी कान्ति का
जो स्मरण करते, धन्य वे मतिमान
उनकी विधिप्रिया रसरंजिनि
अति सुरुचि मधु शृंगार लहरी
स्फुटित हो जाती विमल
वागीश्वरी रंजनमयी नित
सुकवि मानस मोदिनी
वाणी विधात्री
अहह अरुणा ! ||16||
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सवित्रीभिर्वाचां शशिमणिशिलाभंगरुचिभिः
वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि संचिन्तयति यः ।
स कर्ता काव्यानां भवति महतां भंगिरुचिभिः
वचोभिः वाग्देवी वदन कमलामोद मधुरैः ॥17॥
चन्द्रकान्त सुमणि शिलाकण चूर्ण
शोभित शुभ्र तन द्युति
वशिन्यादि समेत
मातः !महाकाव्यकृती
जननि हे !
ध्यान जो करता तुम्हारा
वह सरस्वति वदन कमला मोदिता
मधु वैखरी से
पूरिता स्रोतस्विनी शुचि
परम सुन्दर सूक्ति संयुत
काव्य रचना में निपुणता प्राप्त कर लेता महत्तम ||17||
{वशिन्यादि समेत - सर्व रोग हर अष्टार चक्र की आठ वाग्देवता-वशिनी, कामेश्वरी, मोदिनी, विमला, अरुणा, जयती, सर्वेश्वरी, कौलिनी । --इनके मंत्र स्वरूप 'अ' 'क' 'च' 'ट' 'त' 'प' 'य' 'श' वर्ण वाली सम्पूर्ण मात्रिका शक्तियाँ ।}
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तनुच्छायाभिस्ते तरुणतरणिश्रीसरणिभिः-
र्दिवं सर्वामुर्वीमरुणिमनिमग्नां स्मरति यः ।
भवंत्यस्य त्रस्यद्वनहरिणशालीननयनाः
सहोर्वश्या वश्याः कति कति न गीर्वाणगणिकाः ॥18॥
यौवनोल्लसितोर्मि
दिनकर किरण सम
श्री सरणि युक्ता
लालिमाप्लुत
जो तुम्हारी काय छवि छाया छिटकती
कर रहा है स्नान जिसमें स्वर्ग
और जिसमें भू निमग्न है
उस तुम्हारी तन अरुणिमा का
स्मरण करता अमल जो
चकित हरिणीप्रेक्षणा
अनगिनत ऐसी अप्सरायें
कौन हैं जो उर्वशी के संग
उसकी वशीभूता हो नहीं जातीं
तुम्हारे ध्यान धन से धन्य है जो
छविमयी श्रीमंतिनी हे !
देवि अरुणा भगवती हे ! ||18||
क्रमशः----
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