फेसबुक सबके लिए बहुत अनुकूल है, पर मुझे सुहाता नहीं! इतनी रफ्तार का आदी मैं नहीं! चीजें बहुत तेज गुम होती जाती हैं वहाँ। कितने लिंक, कितने थ्रेड सहेजूँ? खैर, वहाँ एक प्रश्न दिखा, उत्तर वहाँ दे सकूँ, यह कौशल नहीं मेरे पास। जो कहने का मिजाज बना, उसे वहाँ कहना असुविधापूर्ण था, सो उत्तर प्रश्नकर्त्ता को मेल कर दिया मैंने। उन्होंने प्रवृत्त किया तो बात कहने ब्लॉग पर आया हूँ! यहाँ, वहाँ की बातें लिखूँगा, सो बहुत तात्विक और पारिभाषिक यहाँ कुछ भी न मिलेगा! मेरा चिन्तन भी भाव के साथ खूब रहस-वन विचरता है। सो उस अठखेली का अबूझ रस तो मिलेगा ही!
अब शील पर आयें! ’शील’ और ’अनुशासन’ में अन्तर है जरूर। शील को पूरी तरह न तो ज्ञान से ही जोड़ कर देख सकेंगे और न ही केवल शारीरिक क्रिया या व्यवहार से। हाँ, अनुशासन जरूर एक व्यवस्था है, जो हमें हमारी क्रियाओं और व्यवहार (ज्ञानात्मक, क्रियात्मक) के संबंध में निर्देशित करता रहता है। ख़बर रखें, यदि किसी सभा या सार्वजनिक स्थान पर वाणी (भाषा से अभिव्यक्त) चिन्तन की वस्तुनिष्ठा या सार्वजनिक सभा का हिस्सा होने के प्रति कृत संकल्पित रहती है, तब तक वह शील का एक आवरण मात्र है। हम सजग होकर अभिव्यक्त हैं, बह नहीं रहे हैं-चेहरों से चेहरा मिलाकर भाषायी व्यवहार कर रहे हैं- तब तक वह भाषा शीलावरण बन सकती है-दार्शनिकों की भाषा-सी (लगे हाँथ बुद्ध और राम के अन्तर को भी समझते जाइयेगा)। पर ज्यों ही भाषा भावों की सहचरी बनी, भावों की भी भाषा बनी- तब वही “वाणी शील की सरस्वती बन जाती है”।
शील वस्तुतः है क्या?
शील व्यक्ति के जीवन का दर्शन (मात्र) नहीं, काव्य है। कुछ सोच-समझ कर, अपने लिए कोई व्यवस्था बना कर, अपने जीवन या व्यवहार के लिए कोई अचल प्रतिष्ठा कर (मतलब अनुशासन-सा) व्यक्ति का शील निर्मित नहीं होता। इस शील का निर्माण हृदय की व्यवस्था से होता है, और यह व्यवस्था प्रतिक्षण चञ्चल गति से निर्मित होती है।
- शील और अनुशासन में क्या अंतर है?
- या दोनों समान हैं?
- बुद्ध का शील और रामायण में वर्णित राम का गुण शील क्या एक ही हैं?
शील एक समजात स्वभावसिद्ध गुण है। इसे कहीं से सीखने या समुपार्जित करने की आजीवन आवश्यकता नहीं रहती। शील व्यक्तित्व का वह अविच्छिन्न अंग है जिससे मानवता अलंकृत होती है। जैसे पूरे पुद्गल में रक्त परिभ्रमण करता है, जैसे अस्थिसमूह पर चर्मावेष्टन रहता है, जैसे श्वांस संचरण की संजीवनी अनकहे शरीर को परिप्लुत किए रहती है, वैसे ही शील नस-नस की आभा है।
शील को विचारकों ने एक उदात्त अवदान स्वीकार किया है, और यह सब्लिमिटी (Sublimity) किसी और नाम से अभिहित नहीं की जा सकती। शील केवल शील है, और वह कोई ओढ़ी हुई चादर नहीं है कि वह उतार कर रख दी जाय, और न जाड़े की आग है कि दूर से बैठ कर उसका आनन्द लिया जाय। शील का अर्थ है सम्पूर्णता, जीवनी शक्ति और मानवता का दैवीय धन । शीलवान वह अरुणोदय है जो पूरे व्योम मण्डल को, पूरे धरामण्डल को और पूरे आभामण्डल को अपने में समेटे रहता है।
शील तो शायद किसी परिस्थिति के ’बाद’ अपनी गरिमामयी उपस्थिति देता है, जैसे ’मर्यादापुरुषोत्तम’ राम, कर्त्तव्यनिष्ठ राम जो वैभव का सुख-भोग कर वनवास करते हैं, लक्ष्मण के शक्ति से मूर्छित होने पर कहते हैं -“जो जनितेऊँ बन बंधु बिछोहू, पिताबचन मनितेऊँ नहिं ओहू।” अंदाजा लगाइये कि इस असह्य क्षण में भी यदि राम यह कहते कि ’भले ही लक्ष्मण को हमें खोना पड़े, पर हमें तो हमारा कर्त्तव्य प्रिय है’-तो कैसा लगता! तो पूर्व के राम और बाद के राम में कोई अन्तर न दीखता तब। तब राम की देश में जड़स्थिति बनी रहती, पर काल ने जिस परिवर्तन की सृष्टि की उससे राम विमुक्त-से लगते।
रामचरित मानस में सारे गुणों से ऊपर शील की प्रतिस्थापना हुई है-“विद्या विनय निपुण गुण शीला”। सारे गुण, सारी निपुणता, सम्पूर्ण विद्या, सारा विनय शील की आरती उतारता है। सब का सम्मिलित नाम ही शील है । शील गृहिणी की पाकशाला, मल्ल की व्यायामशाला, शिशु की पाठशाला, युवक की रमणशाला और वृद्ध की संस्मरणशाला में समान रूप से वैसे ही बहता रहता है जैसे धमनियों में खून। भाव यह कि प्रवहमान जीवन, भाव विगलित जीवन-दशा, ’करऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी’ जैसी सहजता-सरलता, हरी दूब जैसी विनम्रता, ताल-वृक्ष जैसी अकड़ नहीं, गिरि-शृंग जैसी पकड़ नहीं और उदधि उद्वेलन जैसा वितंडावाद नहीं ।
अनुशासन क्या है?
रही अनुशासन की बात तो वह आयास अर्जित है। अनुशासन को अपने में लागू करना होता है। अनुशासन से क्या ऐसा लगता नहीं कि समाज की तो सध रही है, व्यक्ति टूट जाता है। अनुशासन ’इंजेक्शन’ (injection) से लिया दिया गया ’vigour’(जीवन-रस) है। स्वतः तरंगित शोणित उर्जा नहीं है। अनुशासन को स्खलित होते, पतित होते देखा गया है, देखा जा रहा है। विश्वामित्रों की निर्विकल्प समाधियाँ गिरीं, अनुशासन टूटा। स्वतंत्रता की क्रांति से लेकर वर्तमान की एक आँधी जैसी क्रान्ति (अन्ना-आँधी) में शासक-प्रशासक के अनुशासन बने-गिरे, ’यह’-’वह’ की अनुशासनात्मक पतंग उड़ायी गयी। इसलिए अनुशासन की कई मुख मुद्रायें देखी गयीं और ऐसा हो क्यों नहीं? अनुशासन शासन का अनुगामी है। वह उसके पीछे-पीछे चलता है।
अनुशासन में चेहरे-चेहरे की खिंची-खिंची रेखाएं हैं, शील का दीप्तमान भाल कहाँ है? अनुशासन प्रबल हो सकता, सजल नहीं हो सकता। शील जहाँ जनमानस का प्रफुल्ल शतदल है ,अनुशासन वहीं वाटिका की चहारदीवारी के किनारे लगी हुई बबूल की डाल है। अनुशासन अवरोधक हो सकता है, अभिसिंचक नहीं। अनुशासन सुरक्षा है, संस्कार नहीं। अनुशासन अभिजात है, सहजात नहीं। अनुशासन दोपहरी है जरूर, लेकिन जीवनाकाश की ऊषा बेला या सूर्यास्त की गोधूलि बेला नहीं है।
रामचरितमानस में आया है कि अनुशासन को मानना या जानना होता है– “को नहिं मान निगम अनुशासन”। राम ने कहा, वही मुझे प्रिय है-“मम अनुशासन मानेइ जोई।” साफ है कि अनुशासन मान ले, मना ले की तरकीब है। अनुशासन सीखना पड़ता है, सिखाना पड़ता है। अनुशासन की ’एन०सी०सी०’ होती है, ’स्काउट’ होता है, सेना होती है, संसद होती है, ट्रेनिंग स्कूल’ होते हैं। कहीं शील की भी कोई ’जिम्नास्टिक गैलरी’ है! अनुशासन के स्थान विशेष, व्यक्ति विशेष, परिस्थिति विशेष में नियम कानून बदलते रहते हैं। पश्चिम वाले अपनी दायीं ओर चलने को अनुशासन कहते हैं, हमारे यहाँ सड़क पर बायें चलने को अनुशासन कहते हैं। ’Keep Silent’ का बोर्ड लगा रहता है, स्वयं पढ़कर चुप रहो या थप्पड़ खाकर चुप रहो-चुप रहना अनुशासन हो गया। आसन लगाकर बैठा हुआ सन्यासी बिना इश्तेहार के चुप है। इसे अनुशासन तो नहीं कहेंगे, यह ध्यानी का शील है, स्मृतियों का अनुशासन नहीं।
शील निरूपण : सिद्दान्त और विनियोग
शील-निरूपण को लेकर एक किताब पढ़ी थी- शील निरूपण : सिद्दान्त और विनियोग। लेखक थे श्री जगदीश पाण्डेय। इस किताब को झटके में ही पढ़ा था काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बैठे-बैठे। कुछ पन्ने जो लिख मारे थे, उन्हीं से शील की परत खुलेगी- ऐसा मुझे लगता है। लीजिए-
- यों तो मनुष्य मात्र का सामान्य सत्तासार ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्तियों की एक सम्पृक्त अन्विति है, पर व्यक्ति के शील-भवन की आधार-शिला उसकी भोक्तृत्व-पद्धति ही है।
- यदि ज्ञान से मनुष्य के शील का सीधा या उलट लगाव नहीं तो कोरी शारीरिक क्रिया का भी शील से कोई अटूट या अन्योन्याश्रित संबंध नहीं । जहाँ हाव के पीछे भाव नहीं, वहां शील नहीं । क्रिया मात्र शील नहीं, जब तक वह प्रतिक्रिया न हो।
- शील को पुतली उलटकर देखने की, अवचेतन के छाया-संस्कारों और प्रेत-स्मृतियों को जीवित व्यक्तित्व की विरल-विशेषता मान लेने की, जो परिपाटी चल पड़ी है, वह निंद्य है। जब तक ये संस्कार निष्प्राण, बलहीन उच्छ्वास मात्र रहते हैं तब तक इनकी संश्लिष्ट अभिव्यक्ति नहीं होती।
- शील स्वसहाय होता है, नितान्त असहाय नहीं । ऐसा स्पष्ट दीखना चाहिए कि शीलवान भोक्ता है, अतएव कर्ता है, कुछ करण नहीं।
- विरोध करने और विरोध का सामना करने का सामर्थ्य नहीं तो शील नहीं । जल के वेगवान प्रवाह में बहते हुए बोतल के काक में शील नहीं, विवशता है । पहाड़ पर ठोकर लगे और घर का सिल फोड़नेवाले बुद्धिमान में मूर्खता के साथ शील की निराली अदा भी है।
- शीलवान की सत्ता देश में स्थित ही नहीं, काल की परिवर्तनशीलता की सहधर्मिणी होनी चाहिए। शील की अभिव्यक्ति जीवन की एक घटना है, व्याकरण की संज्ञा नहीं; आत्मदान है, गुण या प्रवृत्ति की भाववाचक सत्ता नहीं। इसी तरह शील का स्खलन परिस्थिति सापेक्ष रसोद्रेक है, स्थिर या स्थायी ताप-तुषार नहीं।
और-और लिखा जा सकता है इस किताब से । बस बहाने मिलते रहें, मैं नियमित रह सकूँ !
वाह. बहुत-बहुत धन्यवाद, हिमांशु. इसपर मैं कुछ लिखना चाहता था पर इतना बढ़िया नहीं लिख सकता था.
& I tried to find an appropriate word in English but failed.
शील व्यक्तित्व का मूल है, आपने बहुत ही सुन्दर से परिभाषित कर दिया है।
@निशांत मिश्र – Nishant Mishra
मैं प्रतीक्षा में था ही आपका लिखा पढ़ने के लिए । अच्छा लगता ।
टिप्पणी का आभार ।
बहुत खूब ……बिना लिखे रह ना सका !
बहुत सुन्दर लिखा है ! अद्भुत !
हम तो समझते थे कि शील तो शीला की जवानी के साथ जुडा है:)
बहुत उम्दा,संग्रहनीय,आभार.
पढना अच्छा लगा, धन्यवाद!
moral is the word that we use in english which is close to "sheel"
"moral " is the inbulit strength of a person
that is why it sounds so wrong when we after a rape sae "sheel bhang " hogayaa
sheel is not something that can be destroyed by any one
http://en.wikipedia.org/wiki/Morality
for nishant and for himanshu as well
पढ़कर रआनंद आया।
भावों का विश्लेषण और सूक्ष्म अंतर बहुत सुंदरता से प्रतिपादित किया है.आ.रामचंद्र शुक्ल की याद आ गई पर उनका आचार्यत्व कहीं-कहीं बिषय को बोझिल बना देता है
– बहुत बोधगम्य और सरस.
@ विरोध करने और विरोध का सामना करने का सामर्थ्य नहीं तो शील नहीं!
यही एक उदाहरण ही आदर्श बन गया है !
सुंदर विवेचन-विश्लेषण..!
सुन्दर!
गहन किन्तु सर्वथा आनंददायी।