’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है । आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आय...

सौन्दर्य लहरी के यह रूपान्तरित छन्द पहले मुक्त छन्द में लिखने शुरु किए थे । बाद में अमरेन्द्र के उचकाने पर छ्न्दबद्ध लिखने का प्रयास दूसरी प्रविष्टि में दिखा आपको । टिप्पणियाँ, मेल इनबॉक्स-दोनों ने छन्दबद्ध रूप से ज्यादा छन्दमुक्त रूप को सराहा । प्रयास तो यही था कि नियमित तीन चार छन्दों की प्रस्तुति से इस ग्रंथ को सम्पूर्णतः प्रस्तुत कर दूँगा, पर अनगिन व्यतिरेकों ने राह रोकी, मैं ठहरा ही रह गया । एकांत के क्षण जब खूब सघन होकर चेतना पर छा गए तो पुनः इस लहरी का सौन्दर्य स्मरण में आया । मैं सायास उपस्थित हूँ इन छन्दों को प्रस्तुत करने के लिए । ढंग वही मुक्त छंदी, आपको रुचिकर लगेगा, इसलिए ।
जगत्सूते धाता हरिरवति रुद्रः क्षपयते
तिरस्कुर्वन् एतत् स्वयमपि वपुरीशस्तिरयति ।
सदा पूर्वः सर्वं तदिदमनुगृह्णाति च शिव
स्तवाज्ञामालंब्य क्षणचलितयोः भ्रूलतिकयोः ॥२४॥
तिरस्कुर्वन् एतत् स्वयमपि वपुरीशस्तिरयति ।
सदा पूर्वः सर्वं तदिदमनुगृह्णाति च शिव
स्तवाज्ञामालंब्य क्षणचलितयोः भ्रूलतिकयोः ॥२४॥
निमिष भर की
चलित
तेरी नयन भ्रू का ले सहारा
अखिल जगत प्रपंच को
हैं जन्म दे देते विधाता
पालते हैं विष्णु सक्षम
रुद्र कर देते प्रलय हैं
पुनः ईश्वर भी
स्वयं निज देह का अवसान करके
निज सदा शिव में
करते स्वयं को स्वयं धारण
प्रतिफलन यह चपल भ्रू नर्तन तुम्हारा,
हे पराम्बा! ॥24॥
चलित
तेरी नयन भ्रू का ले सहारा
अखिल जगत प्रपंच को
हैं जन्म दे देते विधाता
पालते हैं विष्णु सक्षम
रुद्र कर देते प्रलय हैं
पुनः ईश्वर भी
स्वयं निज देह का अवसान करके
निज सदा शिव में
करते स्वयं को स्वयं धारण
प्रतिफलन यह चपल भ्रू नर्तन तुम्हारा,
हे पराम्बा! ॥24॥
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त्रयाणां देवानां त्रिगुण जनितानां तव शिवे
भवेत् पूजा पूजा तव चरणयोर्या विरचिता ।
तथा हि त्वत्पादोद्वहन मणिपीठस्य निकटे
स्थिता ह्येते शश्वन्मुकुलित करोत्तंस मुकुटाः ॥२५॥
भवेत् पूजा पूजा तव चरणयोर्या विरचिता ।
तथा हि त्वत्पादोद्वहन मणिपीठस्य निकटे
स्थिता ह्येते शश्वन्मुकुलित करोत्तंस मुकुटाः ॥२५॥
युग तुम्हारे चरण की
संपादिता जो अर्चना है
उसी से संपन्न हो जाती
त्रिदेवों की सुपूजा
वे त्रिदेव त्रिगुण जनित जो हैं
विधाता विष्णु शंकर
कली सम जोड़े सुकोमल हाथ
रख मस्तक मुकुट पर
निकट उस मणिपीठ के रहते खड़े
जिस पर सर्वसुरेश्वरि हे!
मंजु कोमल चरण रहते हैं सदा आसीन तेरे ॥25॥
संपादिता जो अर्चना है
उसी से संपन्न हो जाती
त्रिदेवों की सुपूजा
वे त्रिदेव त्रिगुण जनित जो हैं
विधाता विष्णु शंकर
कली सम जोड़े सुकोमल हाथ
रख मस्तक मुकुट पर
निकट उस मणिपीठ के रहते खड़े
जिस पर सर्वसुरेश्वरि हे!
मंजु कोमल चरण रहते हैं सदा आसीन तेरे ॥25॥
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विरिंचिः पंचत्वं व्रजति हरिराप्नोति विरतिं
विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् ।
वितंद्री माहेंद्री विततिरपि संमीलित दृशा
महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पतिरसौ ॥२६॥
विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् ।
वितंद्री माहेंद्री विततिरपि संमीलित दृशा
महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पतिरसौ ॥२६॥
जब महासंहार की
होती उपस्थित प्रलय वेला
विधाता पंचत्व पाते विष्णु परम विरामग्राही
काल भी उस काल
हो जाता अचानक कालकवलित
प्राप्त कर लेते निधन को धनद
चिर निद्रा-विलीना इन्द्र आँखें
महाप्रलय कठोर क्रीड़ा संचरण में
किन्तु इस प्रलयंकरी सर्वस्वग्रासी खेल में भी
पति तुम्हारे
विहरते स्वाधीन शिव
साध्वी सती हे ! ॥26॥
होती उपस्थित प्रलय वेला
विधाता पंचत्व पाते विष्णु परम विरामग्राही
काल भी उस काल
हो जाता अचानक कालकवलित
प्राप्त कर लेते निधन को धनद
चिर निद्रा-विलीना इन्द्र आँखें
महाप्रलय कठोर क्रीड़ा संचरण में
किन्तु इस प्रलयंकरी सर्वस्वग्रासी खेल में भी
पति तुम्हारे
विहरते स्वाधीन शिव
साध्वी सती हे ! ॥26॥
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जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्रा विरचना
गतिः प्रादक्षिण्य क्रमणमशनाद्याहुति विधिः ।
प्रणामः संवेशः सुखमखिलमात्मार्पण दृशा
सपर्या पर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ॥२७॥
यहाँ मेरा कथन जो भीगतिः प्रादक्षिण्य क्रमणमशनाद्याहुति विधिः ।
प्रणामः संवेशः सुखमखिलमात्मार्पण दृशा
सपर्या पर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ॥२७॥
सभी कुछ हो तुम्हारा जप
क्रियायें हो जाँय सब मुद्रा तुम्हारे अर्चना की
हलन चलन प्रदक्षिणा हो
सब तुम्हारी मूर्ति का ही
हमारी भोजन क्रियायें सब तुम्हारी आहुती हों
शयन हो साष्टांग प्रणति
समस्त जो सुखभोग मेरे वे तुम्हारे हेतु ही हो जाँय
आत्मार्पण दशायें
इस तरह सकल चेष्टायें हमारी
हे सदा सौभाग्यदा!
बस तुम्हारे समर्चन की पर्याय बन जायें ॥27॥
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