सौन्दर्य लहरी के छन्दों के अनुवाद के क्रम में कुल 27 छन्दों के अनुवाद अब तक इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्य शंकर की इस विशिष्ट कृति का पारायण गहन आनन्द एवं विभोरता की उपलब्धि है। आज पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं के बाद प्रस्तुत है आठवीं कड़ी के रूप में सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 28-31) का हिन्दी रूपांतर।
सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद
पीयूष का भी पान कर
जो जरा मृत्यु भयापहारी
विधि सुराधिप देवगण भी
त्याग करते प्राण का हैं
किन्तु गहन कराल पी भी
शिव न होते कालकवलित
यह तुम्हारे श्रवणद्वार अलंकरण
ताटंक की ही है विशद महिमा
परम सौभाग्यप्रद शिव को
जननि हे! ॥28॥
“दूर तुम कर दो विधाता
मुकुट अपने भाल से अब
दो हटा हरि कैटभारि
किरीट कठिन कठोर सिर से
जम्भ अरि देवेन्द्र तुम भी
पृथक कर दो मुकुट सिर से
अब पधार रहे उमापति शंभु ” –
यह उनके नमन के समय में
जब वे तुम्हारे चरण में प्रणिपात करते,
शंभु अभ्युत्थान क्षण में
जननि तेरे परिजनों की
विजयिनी हो यह गिरा गंभीर
नित शिवसंगिनी हे! ॥29॥
सिद्धिकामी मानवों हित
तंत्र चौंसठ रच जगत में
तंत्र सिद्धि विधान से
उलझा दिया पशुनाथ शिव ने
पुनः ले आदेश तेरा
जो अखिल पुरुषार्थ दाता
तंत्र त्रिपुरागम तुम्हारा
माँ !
कर दिया है परम शिव ने
प्रकट उसे स्वतंत्र ॥30॥
शंभु-शक्ति-अनंग-क्षिति-रवि,
चन्द्रमा-स्मर-हंस-सुरपति,
परा-मनसिज-हरि,
त्रयी इस अंत में फिर जोड़ माया
’हादि’ मंत्र ग्रथित तुम्हारा
वर्णमय अवयव पराम्बा
जप जिसे ब्रह्मादिपद निर्वाण
साधक प्राप्त करते
परम दुर्लभ स्थान
अतिशय सहजता से ही
जननि हे!॥31॥