वसंत का चरण न्यास हुआ है। गज़ब है। आया तो आ ही गया। “फूली सरसों ने दिया रंग। मधु लेकर आ पहुँचा अनंग। वधु वसुधा पुलकित अंग-अंग….”। मतवाली कोयल की कूक से भरा, सिन्धुबार, कुन्द और सहकार से सुशोभित, गर्वीले काम और हवा से भरे जवानों का प्यारा मौसम ..
“सस्म्भ्रम परिभृत रुतः ससिन्धुवारः सकुन्दसहकारः।
समदमदनः सपवन सयौवन जनप्रियः कालः॥”
“प्रचलकिसलयाग्रप्रनृत्त द्रुमं यौवनायते फुल्लवल्लीपिनद्धं वनम्
तिलकशिरासे केशपाशायते कोकिलः कुन्दपुष्पेस्थितः स्त्रीकटाक्षायते षटपदः।
क्वचिद्चिरविरूढ़बालस्तनी कन्यकेवोदगतैः श्यामलैः कुड्मलैः पद्मिनी शोभते
वर युवतिरति श्रमखिन्नपीनस्तनस्पर्शधूर्तायिता वान्ति वासंतिका वायवः॥”
सच ही है बलवान यह ऋतु मदनशरसंताप-कर्कश ही है । पूरी तरह से यह प्रकृति बालभाव का प्रकट उन्मोचन करती हुई यौवनावतार कोमला हो गयी है। नहीं देख रहे हैं फूलों का खिलखिलाना,समद मधुकर श्रेणी का मकरंद पान, कोकिल की कूक, सुरभि सुभग पवन, कर्कशोद्दाम मनोभव –क्या यह अमोघ वासंती समय विवस बालाओं को कामियों की गोद में पहुँचाने की खुशामद नहीं कर रहा है! ऐसे में कैसे कोई विरक्त रहे! नाना कुसुम समवाय सम्पीड़ित तथा वासंती दोपहरी में घूमने वालों के पसीनों के स्पर्श से शीतल पवन अंचल खींचता है तो इस बरजोरी को क्या नाम दें! कैसे रोकें! हर कुएँ में भाँग पड़ी है। फूलों के ढेरों से अंग-प्रत्यंग सजायी हुई पुष्प-वीथी नवोढ़ा वसंतवधू-सी लरज रही है, स्वयं बुलावा दे रही है। फुल्ल सुमन सी मुख शोभा, श्वेत सुमन-सी दंत-पंक्ति, नवनील कमल-सी आँखें, रक्ताशोक से स्फुरित अधर, भ्रमर गुंजन सी मीठी बोली, पुष्पकलिका के गुँथे आभूषण–इस अखिला मधुरा मनहरणी मूर्ति को नख-शिख निहार कर जो कृतकृत्य नहीं हो वह हतभागी ही है न!“आतोद्यं पक्षिसंघास्तरुरसमुदिताः कोकिला गावन्ति गीतं
वाताचार्योपदेशादभिनयति लता काननान्तःपुरस्त्री ।
तां वृक्षाः साधयन्ति स्वकुसुमहृषिताः पल्लवग्रांगुलीभिः
श्रीमान प्राप्तो वसन्तस्त्वरितमपगतो हारगौरस्तुषारं ॥”
“गाओ गीतों के बिना किसी का स्वागत कब हो पाता है-
तारुण्य न फिर-फिर आता है।
वह धन्य सदा जो झूम-झूम कर गीत प्रीत के गाता है-
तारुण्य न फिर-फिर आता है।”
बहुत हो चुका। बड़े आँसू गिरे। अब तो मुस्करा दो! बाबूजी बह-बह लिख गए-
“बहता रहा विकल लोचन से अविरल सलिल प्रपात
सहता रहा विनीत वल्लभे अगणित कटु आघात
बात ही बातों में।
बीत न जाये यह वसंत की चिर-प्रतीक्षिता रात
बात ही बातों में॥सुनो शांत कहती वसंत वनिता पतझर की करुण कथा ।
क्यों न पूर्ण कर देती’पंकिल’ पड़ी अधूरी प्रणय कथा।
कब सज सकी बिना दूल्हे के प्रिये कभीं वारात –
बात ही बातों में।
बीत न जाये यह वसंत की चिर प्रतीक्षिता रात-
बात ही बातों में॥”
सच मानो –
कुछ बीज मिटे गिर धरती पर
कुछ खड़े सम्हाले अपना सर ।
दोनों के लिए समान रूप से
आता ही यह कुसुमाकर ॥बैठे जो निज को बचा हंत
उनके वसंत का हुआ अंत ।
जो निजता देते मिटा, उन्हीं को
दुलराता गहगह वसंत ॥

basant par sundar prastuti di hai
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