
तृतीय दृश्य
राजा: विप्र देवता को आदर के साथ यहाँ ले आओ।
विश्वामित्र: रे क्षत्रिय कुल कलंक! बड़ा बना है बैठाने वाला। बैठ चुके, बैठ चुके। (हाथ उठाकर क्रोध से काँपते अधरों से) अरे पापिष्ट! धिक्कार है तेरी सत्यवादिता को। मिथ्यावाद का सहारा लेकर धर्मनिष्ठा का दुंदुभिनाद करते तुम्हें लज्जा नहीं आती है। कहाँ गया तेरा वचन! किस भाड़ में जल गया तेरा दान! कहाँ मर गया तेरा संकल्प! अरे नराधम मुझे पहचानता नहीं?
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Scene from Satya Harischandra(Play), enacted by the Samatha Nataka Gurukulam of Guntur at the Mahati auditorium in Tirupati in 2005. Source:The Hindu |
विश्वामित्र: (टपकते हुए अश्रुजल से आर्द्र कपोलों को पोंछती हुई) अरे शेखी बखारने वाले पाखंडी! यदि तूँ सचमुच सूर्यवंशी है, यदि तुम्हें सचमुच अपने वचन का निर्वाह करना है तो दे मेरी पृथ्वी!
विश्वामित्र: दान के बाद की दक्षिणा कहाँ है?
राजा: (मंत्री की ओर देखकर) आमात्य! एक सहस्र स्वर्णमुद्रायें दक्षिणा-स्वरूप कोष से लाकर विप्र को प्रदान की जाँय।
विश्वामित्र: (तमतमाते हुए) रे अभिमानी! अभी क्या तुम कोष के अधिकारी ही बने बैठे हो! जब सब दान में दे दिया तो क्या खजाना खँगालने से बाज नहीं आयेगा। सारा राज्य, कोष, गृह, परिचर अब मेरे हैं। एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना निकल जा यहाँ से। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी धर्मपत्नी और तुम्हारे तनय के अतिरिक्त कुछ भी तुम्हारा नहीं है। बंधन, मर्यादा, लाज, शील, विवेक को तिलांजलि मत दो। जा बाहर! रही दक्षिणा की एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ! इसके लिए तुम्हें एक माह का समय देता हूँ। समय चुका तो मैं अपना ब्रह्मदंड गिरा कर तुम्हें चूर-चूर कर दूँगा।
राजा: विप्रदेवता! ब्रह्मदंड से अधिक मुझे सत्यदंड का भय है। मुझे आज्ञा दें। समय के भीतर ही आपकी दक्षिणा चुका दूँगा। वचन ही हमारा धन है। मैं चला। गुरुवर चरणों मे सादर प्रणाम है।
विश्वामित्र: (स्वगत) अभी तो तुम्हे लक्ष्मी भ्रष्ट किया है। अब तुम्हें सत्य भ्रष्ट करके ही दम लूँगा। (प्रकट) जा क्षत्रिय राजा! जल्दी जा! दानी मोह को भी छोड़ने में नहीं हिचकते। हाँ, ध्यान रखना अपने इतने बड़े दान की दक्षिणा का। माह की अवधि भूले नहीं।
रानी: मेरे प्राणनाथ! कहाँ चलेंगे? यात्रा के अपशकुन हो रहे हैं। सूर्य को परिवेश से घिरा हुआ देख रही हूँ। पीछे शब्दसहित धूम जैसी आकृति वाली घिरी बदली है। दाहिनी आँख फड़क रही है। सामने ही रिक्त घट पड़ा है। मन में अशान्ति-सी है। क्या होना है?
राजा: धर्मज्ञे! जीवन की सफलता किसमें है? मायावाद की मनोहारिता में, भोगवाद की सरसता में, बन्धु-बांधव की अनुरक्ति में नहीं; सत्य की उपासना में, सद्धर्म के आचरण में। जो हो रहा है या जो होगा सब हमारे करुणा वरुणालय प्रभु का खेल है। जीवन की चिन्ता नहीं, जीवनादर्श की चिन्ता करो। वास्तविक सुख और शान्ति उसके लिए है जो अपने को एक साथ ही वज्र के समान कठोर और पुष्प के समान सुकोमल बनाने में समर्थ होता है।
रानी: (आँसू पोंछती हुई) कहाँ चलना है?
राजा: सोचता हूँ काशी चलेंगे। यह त्रिभुवन से न्यारी है। भगवान भूतभावन शिव के त्रिशूल पर बसी है। वह किसी के राज्याधिकार में नहीं है। विश्वेश शिव हैं। धन नहीं, तन तो अपना है। हम अपना शरीर वहाँ बेचकर ब्राह्मण की दक्षिणा चुकाएँगे। शिवपुरी ही शरण है।
“गंगातरंग रमणीय जटाकलापं गौरी निरंतर विभूषित वामभागं।
नारायणप्रियमनंगमदापहारं वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाथ॥
वाराणसी पुरपते मणिकर्णिकेश वीरेश दक्षमखकाल विभोगणेश।
सर्वज्ञ सर्व हृदयैक निवासनाथ संसार दुःख गहनज्जगदीश रक्ष॥”

अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी।
bahut hi sundar prastuti…..
kunwar ji,
धन्यवाद!
सत्य संग, जीतेगें जग हम।
सचमुच! प्रतीक्षित रहूँगा मैं भी।