(महाराजा द्युमत्सेन की पवित्र स्थलीय आश्रम जैसी व्यवस्था। सावित्री पति के साथ सुख पूर्वक निवास करती है। आभूषण उतार कर रख देती है और गैरिक वसना हो जाती है। पति सास-ससुर की सेवा कर उन्हें प्रसन्न रखती है। इस प्रकार वह अभाव में भी भाव का सृजन कर स्वयं संतुष्ट रहती और पूजनीयों को भी संतुष्ट और सुखी रखती। सावित्री उस निर्जन को भी अपनी उपस्थिति से नंदन-वन बना देती है।)
सावित्री-सत्यवान स्रोत: गूगल
सत्यवान: (एकान्त विश्राम स्थल में) हे मेरी चिरकाम्या! तुम नहीं होती तो यहाँ पर कौन मुझको खोजता! भरी भरी यह नर्म हथेली चिर अमरता का आश्वासन कहाँ से दे पाती। तुम्हारे इस दर्शन से मेरे ऊपर सकल चराचर की ममता उमड़ आयी है। तुम्हारे सानिध्य में मैं अकिंचन अनन्त निःसीम हो गया हूँ।
सावित्री: हे मेरे हृदयेश्वर! तुम ही मेरे प्राणों की सर्व स्वहारिणी पुकार हो। कोई यह नवीन संयोग नहीं है। विश्वास करो प्रिय! रात की निस्तब्धता को चीर कर कोई अनजाना स्वर गूँज उठता था। वह तुम्हारा स्वर ही तो था। शैया पर छितरी अलस मेरी लटों को यदि कोई स्पर्श किया होता तो मैं भूल से भी यह नहीं सोचती कि ढीठ सपने उनींदी पलकें चूमने आये हैं। यह तुम्हीं तो आते थे। गवाक्ष की अर्गला पार कर कोई पद्मगंध पास आती तो मैं भरम नहीं जाती थी कि सलोनी चाँदनी गदरा गयी है। स्वरों के पीछे छिपे पदचाप, सिहरनों के पार की अंगुलियों के स्पर्श में तुम्हीं तो नित्य आते थे हमारे पास तक।
सत्यवान: वरानने! तुमने मेरी श्वासों में इतना ज्वार भर दिया है कि इस जीर्ण-शीर्ण कन्था में, मोती ही समा नहीं रहा। मेरे भग्न सितार के तार-तार को तुमने कस कर जन्म-जन्म के बिसरे गीत को जगा दिया है। मनसिज और मनसिज दहन शंकर की चिर गोपन लीला का भेद आज समझ में आ गया है। हे मेरी तापसी प्रिये! मैं तुम्हें तन-मन-प्राण-आत्मा के सारे ही धरातलों पर प्रेम में, वासना में, पावन में, अपावन में, नाश में, सृजन में, अपने समस्त में आज मैं तुमको समस्त ही पा गया। तुम्हारी बाहों के ममतामय बन्धन में असीम और अनन्त समा गया है, चाहे वह कहीं हो।
सावित्री: रात्रि काफी बीत चुकी है। अब शयन करें। आपके श्री चरणों को प्रणाम करती हूँ।
(सत्यवान शयन के लिए जाते हैं। सावित्री को नारद की बात भूलती नहीं। वह चिन्तित होकर मौन आकाश की ओर देखती है।)
सावित्री: (स्वगत) अब तो प्राणनाथ के जीवन का एक ही दिन शेष रह गया है। वज्र हृदय! कल का दिन मेरी अग्निपरीक्षा का दिन होगा। सूर्योदय होने में बस एक प्रहर ही बाकी है। (आँखें हथेलियों से ढक कर फफक कर रो पड़ती है, फिर बेसुध हो जाती है।)
(सत्यवान का प्रवेश। सावित्री को बेसुध देख कर जगाता है।)
यह प्रस्तुति
इस ब्लॉग की नाट्य प्रस्तुतियाँ करुणावतार बुद्ध (1,2,3,4,5,6,7,8,9,10) एवं सत्य हरिश्चन्द्र (1,2,3,4,5,6,7,8,9) उन प्रेरक चरित्रों के पुनः पुनः स्मरण का प्रयास हैं जिनसे मानवता सज्जित व गौरवान्वित होती है। ऐसे अन्याय चरित्र हमारे गौरवशाली अतीत की थाती हैं और हमें अपना वह गौरव अक्षुण्ण रखने को प्रेरित करते हैं। चारित्रिक औदात्य एवं समृद्धि के पर्याय ऐसे अनेकों चरित्र भारतीय मनीषा की अशेष धरोहर हैं जिन्होंने अपनी प्रज्ञा, अपनी महनीयता एवं अनुकरणीय विशेषताओं से इस देश व सम्पूर्ण विश्व को चकित किया । ऐसा ही अनोखा नाम है सती सावित्री। सावित्री का यह विशिष्ट चरित्र कालजयी है। नारी की अटूट व दृढ़ सामर्थ्य का अप्रतिम उदाहरण है। प्रस्तुत नाट्य प्रविष्टि वस्तुतः नारी की महानता का आदर है, सहज स्वीकार है।
सत्यवान: प्रिये! (चौंक कर सावित्री जगती है) क्या बात है प्रिये! तुम्हारा जी कुछ अनमना-सा लग रहा है। जाओ, थोड़ा विश्राम कर लो, मैं समिधा चुनने जा रहा हूँ।
सावित्री: नहीं नाथ! आज आप अकेले न जाँय। मैं भी आपके साथ चलूँगी।
सत्यवान: प्रिये! वन का रास्ता बहुत कठिन है। तुम वन में पहले कभी नहीं गयी हो और इधर व्रत और उपवास ने तुम्हें दुर्बल बना दिया है। तुम पैदल न चल सकोगी।
सावित्री: उपवास से मुझे कोई कष्ट और थकावट नहीं है। चलने के लिए मन में उत्साह है इसलिए रोकिए मत। मध्याह्न की अलस बेला में जब उदासी कुंज-कुंज फेरा डालेगी तो मैं तुम्हारी स्वर लहरी में स्वर मिलाकर शून्यता को बाँसुरी बना दूँगी। दिवा-रात्रि में तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूँगी, नहीं छोड़ूँगी। सत्यवान: यदि तुम्हें चलने का उत्साह है तो प्रिये! मैं नहीं रोकूँगा, किन्तु माता-पिता से आशीर्वाद तो ले लो।
(सत्यवान के माता पिता विराजमान हैं। सावित्री उनके चरणों को छूकर जाने को तैयार हो जाती है।)
सावित्री: पिता श्री! आज मुझे नाथ के साथ वन जाने की अनुमति दें।
द्युमत्सेन: तुम जब से बहू बन कर आयी हो, तब से अब तक किसी बात के लिए याचना की हो, मुझे स्मरण नहीं। अतः आज तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी हो जानी चाहिए। अच्छा बेटी, तू जा!
(सावित्री आज्ञा पाकर पति के साथ वन की ओर चल देती है। उसके मुख पर हँसी थी किन्तु हृदय में दुःख की आग जल रही थी।)
A blogger since 2008. A teacher since 2010, A father since 2010. Reading, Writing poetry, Listening Music completes me. Internet makes me ready. Trying to learn graphics, animation and video making to serve my needs.
हाँ, यह क्रमशः की पाबन्दी खलती तो है ही। पर यह प्लेटफॉर्म ही ऐसा है कि इकट्ठा प्रस्तुत करना थोड़ा असुविधाजनक है। पर रास्ते ढूढ़ रहा हूँ। शायद प्रविष्टि में पृष्ठ -1, 2, 3 बनाकर ऐसा हो सकता है। एकाध बार प्रयास करूँगा। और हाँ, डिस्कस टिप्पणी व्यवस्था की सुविधाओं का इस्तेमाल दिखा मुझे-आपके चित्र द्वारा। अब इसे लगाना सही लग रहा है।
मैने सोचा था अंत में पूरी किश्त एक साथ पढ़ूंगा लेकिन आज पढ़ने का मोह त्याग नहीं पाया। ..लेखन शैली इतनी रोचक है कि यह रूक कर क्रमशः पढ़ना खलता है।
रोचकता से पूर्ण एक और अध्याय..
यह वृतांत ही रोचक है और प्रेरक भी।
हाँ, यह क्रमशः की पाबन्दी खलती तो है ही। पर यह प्लेटफॉर्म ही ऐसा है कि इकट्ठा प्रस्तुत करना थोड़ा असुविधाजनक है। पर रास्ते ढूढ़ रहा हूँ। शायद प्रविष्टि में पृष्ठ -1, 2, 3 बनाकर ऐसा हो सकता है। एकाध बार प्रयास करूँगा।
और हाँ, डिस्कस टिप्पणी व्यवस्था की सुविधाओं का इस्तेमाल दिखा मुझे-आपके चित्र द्वारा। अब इसे लगाना सही लग रहा है।
its a genuine post and having very good
description….
India's No 1 Local Search Engine
QuestDial