अरविन्द जी ने शिल्पा मेहता जी के एक विशिष्ट आग्रह को पूर्ण करते हुए कुछ दिनों पूर्व नल-दमयंती आख्यान सरलतः अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया। नल और दमयंती की प्रणय-परिणय कथा मुझे भी आकर्षित किए हुए थी, और इसे नाट्य-रुप में ढालने की उत्कंठा भी बहुत पुरानी थी। अरविन्द जी से आशीर्वाद ले इस आख्यान को नाट्यरूप में प्रस्तुत करने का सहज प्रयास है यह। वस्तुतः यह आख्यान नाट्य-रूप में काफी विस्तार की माँग करता है। कोशिश यह होगी कि आख्यान के मर्मस्पर्शी अंश निश्चिततः विस्तार लें, और शेष सूत्रतः इस आख्यान को आगे बढ़ायें। इस प्रस्तुति की प्रेरणा के लिए अरविन्द जी का आभार। यह प्रविष्टि इस रूप में बाबूजी के विशिष्ट योग से आ पायी है, मैं सदा नत्‌।

नल दमयंती की यह कहानी अद्भुत है। भारत वर्ष के अनोखे अतीत की पिटारी खोलने पर अमूल्य रत्नों की विशाल राशि विस्मित करती है। इस पिटारी में यह कथा-संयोग ऐसा ही राग का एक अनमोल चमकता मोती है। भाव-विभाव और संचारी भाव ऐसे नाच उठे हैं कि अद्भुत रस की निष्पत्ति हो गयी है। निषध राजकुमार नल और विदर्भ राजकुमारी दमयंती के मिलन-परिणय की अद्भुत कथा है यह। रुदन, हास, मिलन, विछोह के मनके इस तरह संयुक्त हो उठे हैं इस कहानी में कि नल दमयंती मिलन की एक मनोहारी माला बन गयी है- अनोखी सुगंध से भरपूर। नल दमयंती की यह कथा नाट्य-रूप में संक्षिप्ततः प्रस्तुत है। दृश्य-परिवर्तन के क्रम में कुछ घटनायें तीव्रता से घटित होती दिखेंगी (नेपथ्य में)। इसका कारण नाट्य के अत्यधिक विस्तृत  हो जाने का भय है, और शायद मेरी लेखनी की सीमा भी। प्रस्तुत है पहली कड़ी।

प्रथम दृश्य

(राजमहल का दृश्य। निषध नरेश नल विदर्भ राजकुमारी दमयंती के विवाह के लिए आयोजित स्वयंवर में जाने से पूर्व अपने कुलगुरु से आशीर्वाद के लिए प्रस्तुत होते हैं। कुलगुरु को प्रणाम करते हैं।)

कुलगुरु: कल्याण हो राजन्‌! हे प्रजापालक! जो राजा, गुरु एवं श्रेष्ठजनों को आदर-सम्मान करता है, समकक्षी राजाओं को यथोचित स्थान देता है और प्रजा को पुत्रवत स्नेह करता है, उसका राज सदा ही निष्कंटक और चिरस्थायी होता है।

नल: आशीष दें कुलगुरु! आपके आशीर्वचनों का अक्षरशः पालन कर सकूँ और मेरे मन मन्दिर में ले रही कल्पना की मूर्ति चिरस्थायी हो सके।

कुलगुरु: जाओ राजन्‌! तुम्हारा मनोरथ निश्चय ही पूर्ण होगा। स्वयंवर में उपस्थित राजा-राजकुमार तुम्हारे तेज से वैसे ही प्रतिहत हो जायेंगे जैसे कि सूर्य की तेजोमय रश्मियों से तारे। विजयी भवः राजन! विजयी भव:।

(नल प्रणाम करता है। पर्दा गिरता है।)


द्वितीय दृश्य

(पर्दा उठता है। इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम राजा नल से मिलने जा रहे हैं)

इन्द्र: देव! हम पहुँच गए! मुझे निषध नरेश नल की ही प्रतीति हो रही है जो सकल लोक हृदयानन्द त्रिभुवन विलोचन है। रमणीयता को भी दुगुनी रमणीयता प्रदान करने वाले और नवयौवन सागर का अमृत रस स्वरूप हैं वह। 

वरुण: हाँ देव! लग रहा है पुण्डरीकाक्ष नारायण ही, नल का रूप धारण कर लिए हैं। यह अमानुषी आकृति प्रणाम के योग्य है, यह भीम सुता को सनाथ करता हुआ प्रतीत हो रहा है। 

अग्नि: सत्य ही वरुण देव! लगता है इस महीपति के हृदय में धर्म का, अनुग्रह में कुबेर का, नेत्र में लक्ष्मी का और वाणी में वीणावादिनी का सत्व रच बस गया है। बुद्धि में वृहस्पति, तेज में भाष्कर तथा सौन्दर्य में मनसिज की निवास भूमि होने से यह सर्वदेवमय प्रकटित नल रूप ही है जो दमयंती स्वयंवर को सुशोभित करेगा। 

यम: हाँ, अग्निदेव! मुझे पूर्ण विदित है कि महाराज नल का राजभवन श्रेष्ठ मित्रों, राजपुरुषों से सदा सुशोभित रहता है। यज्ञ-यज्ञादि धर्म कार्य से सम्पूर्ण प्रजा सुयश और सम्मान का भाजन बनती है। अभ्यागतों का आदर सम्मान करने वाला यह महापुरुष अत्योत्तम है।

(देवताओं का आगमन। नल सबको प्रणाम करते हैं।)

वरुण: राजेन्द्र नल! आप बड़े सत्यव्रती हैं। हम लोग याचक होकर आपके पास आये हैं। आपसे अपने कार्य की सम्पन्नता के लिए आग्रह करते हैं। आप वचन दीजिए कि हमारा मनोरथ सिद्ध करेंगे।

नल: कोई भी याचना करे और नल उसे पूरा न करे, ऐसा कभी संभव नहीं हो सकता। मैं आपका कार्य अवश्य करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करता हूँ। किन्तु पहले आप अपना परिचय देने की कृपा तो करें। आप लोग कौन हैं? 

इन्द्र: महाराज नल! हम देवता हैं, मैं इन्द्र हूँ, ये अग्नि हैं, आप वरुण हैं और आप यम। आप हमारा दूत-कर्म कर दें। दमयंती के पास जाकर यह निवेदन कर दें कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यम देवता तुमसे परिणय करना चाहते हैं। 

Raja_Ravi_Varma,_Damayanthi

नल:(दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए) देवराज! जिस दमयंती का वरण करने मैं जा रहा हूँ उसी का दूतकर्म भला कैसे करूँगा? ऐसे सर्वज्ञ, विश्वपूज्य आप लोगों को मुझ तुच्छ को ठगने में क्या दया नहीं आयी? खेद है! बड़े लोगों को तो पहले, उचित है कि वे किसी को ठगने का विचार ही न करें और यदि करें भी तो उन्हें बड़े लोगों को ही ठगना चाहिए। मनुष्य होने से देवताओं की अपेक्षा अत्यन्त तुच्छ, मुझे ठगने में तो आप जैसे देवताओं को दया होनी चाहिए। ऐसा तुच्छ काम भला मैं क्यों करूँ? आपलोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा ही करें। मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजने से आपलोगों का कार्य सिद्ध होना तो दूर रहा, पहले ही सबको विदित होने से बिगड़ जाएगा। 

वरुण: नल! तुम क्षत्रिय हो और कदाचित तुम्हें स्मरण होगा कि क्षत्रिय वचन पालन हेतु प्राणोत्सर्ग करने में भी किंचित मात्र नहीं हिचकिचाते, अतः नल! अपने कुल और क्षत्रिय धर्म की रक्षा हेतु दिए गए वचन को पूर्ण करो और अविलम्ब प्रस्थान करो। 

नल: दमयंती के लिए जिस प्रकार आपलोगों ने मुझसे याचना की है, उसी प्रकार मैं एक साधारण मानव होकर श्रेष्ठ देवाधिपति आपलोगों से भीम कुमारी दमयंती की याचना करता हूँ। कुण्डिल पुराधीश की कन्या ने तो पहले से ही मुझे वरण कर लिया है, ऐसा निश्चित है। अतः सहसा मुझे देखने पर वह सात्विक भावों के उदय होने से लज्जित हो जाएगी और निश्चय है कि आप लोगों का वरण नहीं करेगी। वह आपलोगों के वरण का प्रस्ताव भी नहीं सुनना चाहेगी। अतः उसके लिए आपलोगों की इच्छा करना व्यर्थ ही है। इस कारण आपलोग मेरे ऊपर प्रसन्न हों क्योंकि यह मेरे लिए अत्यन्त अनुचित है। 

इन्द्र: हे नल! तुम चन्द्रमा के समान अपने निर्मल यश को क्यों छोड़ रहे हो? याचना पूरा करने के लिए आग्रह स्वीकार करके फिर उसे पूरा न करना तुम्हारे जैसे व्यक्ति के लिए कलंक है। तुम्हें हम लोगों के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। तुमने अब तक किसी भी याचना करने वाले को ’नहीं’ नहीं कहा। अतः अब भी हम लोगों को ’नहीं’ मत कहो। याचना करने पर धीर दाता कहाँ विलम्ब करता है राजन! किसी व्यक्ति के क्षण मात्र भी जीने की ज़िम्मेदारी कोई नहीं उठा सकता। हम जैसे सतपालों को पहले देने को कह कर फिर निराश करने पर तुम्हें बड़ा कलंक तथा दोष लगेगा। अपनी कुल-मर्यादा क्यों छोड़ रहे हो, राजन!

नल: (कुछ सोचते हुए) देव! आपलोग हमें वचन में बाँधकर निज कार्य सिद्धि के लिए विवश कर रहे हैं। मैं कृतप्रतिज्ञ हूँ। अतः जो आपकी अभिलाषा है, उसे अवश्य पूरा करूँगा। परंतु यह तो बताईये कि राजमहल में निरंतर कड़ा पहरा रहता है, मैं कैसे जा सकूँगा? 

इन्द्र: तुम्हें अभी भी हिचकिचाहट है राजन! देव दाता हैं। दूसरे लोग हमसे अभीष्ठ वर की याचना करते हैं। ऐसे हम तुमसे याचना कर रहे हैं, यह आश्चर्य है। हे दानवीर! तुम केवल हम लोगों के मनोरथ ही पूर्ण मत करो, इन्द्रादि दिगपाल तुम्हारे यहाँ याचक बने, ऐसे अपने यश से सारी दिशाओं को पूर्ण कर दो। तुम्हारी कीर्ति चमक उठेगी। अतः तुम्हें ऐसा अवसर नहीं चूकना चाहिए। लाभ हानि सोच लो। रही बात, तुम्हारे अन्तःपुर में प्रवेश करने की। हम आशीर्वाद देते हैं कि तुम राजमहल में बेरोक-टोक अदृश्य रुप में प्रवेश कर जाओगे और राजबाला दमयंती से अबाध रूप से मिल पाओगे। हम लोग राजद्वार के बाहर उत्सुकतापूर्वक तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे। शुभं भवतु। 

नल: हे सुरवरों! हमारा प्रणाम स्वीकार करें। नल आपके मनोरथ की पूर्ति के लिए राजा भीम के अन्तःपुर में प्रविष्ट होने जा रहा है। (नल प्रवृत्त होता है। देवताओं का प्रस्थान।)

नल: (आँखों में आँसू भरकर आकाश में निहारते हुए) नल के जीने को धिक्कार है। हाथ में आयी हुई पारसमणि को ठोकर मारने पर विवश हो रहा है। हे देव दुर्लभ सुन्दरी राजकन्ये! ज्वाला को स्तंभित करने के लिए कूद पड़ते हैं काले-काले पतंगे,किन्तु वे जल्द ही पंखहीन बनकर राख हो जाते हैं। तब भी ज्वाला अक्षुण्ण ही रहती है। चाहे जो हो, हे आनन्द निकेतन! तुम्हारे यश की दीपशिखा अम्लान जलती रहे। मनुष्य तो सदा से ही परिस्थितियों का दास रहा है नल! चलो, अब अपनी राह पकड़ो!