नल दमयंती की यह कहानी अद्भुत है। भारत वर्ष के अनोखे अतीत की पिटारी खोलने पर अमूल्य रत्नों की विशाल राशि विस्मित करती है। इस पिटारी में यह कथा-संयोग ऐसा ही राग का एक अनमोल चमकता मोती है। भाव-विभाव और संचारी भाव ऐसे नाच उठे हैं कि अद्भुत रस की निष्पत्ति हो गयी है। निषध राजकुमार नल और विदर्भ राजकुमारी दमयंती के मिलन-परिणय की अद्भुत कथा है यह। रुदन, हास, मिलन, विछोह के मनके इस तरह संयुक्त हो उठे हैं इस कहानी में कि नल दमयंती मिलन की एक मनोहारी माला बन गयी है- अनोखी सुगंध से भरपूर। नल दमयंती की यह कथा नाट्य-रूप में संक्षिप्ततः प्रस्तुत है। दृश्य-परिवर्तन के क्रम में कुछ घटनायें तीव्रता से घटित होती दिखेंगी। इसका कारण नाट्य के अत्यधिक विस्तृत हो जाने का भय है, और शायद मेरी लेखनी की सीमा भी। इस प्रविष्टि में राजा नल देवताओं का संदेश लेकर दमयंती के पास प्रस्तुत हैं। नल दमयंती संवाद से अभिव्यक्ति के अनूप रूप उद्घाटित होंगे। प्रस्तुत है पहली के बाद दूसरी कड़ी।
नल दमयंती: तृतीय दृश्य
(रनिवास का दृश्य। नल चकित होकर रनिवास देखता है। दमयंती का प्रवेश।)
दमयंती: हे वीराग्रणी! आप देखने में परम मनोहर और निर्दोष जान पड़ते हैं। पहले अपना परिचय तो बतायें! आप यहाँ किस उद्देश्य से आये हैं? द्वारपाल ने आपको देखकर रोका नहीं?
नल: इससे पहले कि मैं अपना परिचय दूँ, हे मृगाक्षी! तुम अधीरता छोड़कर संयमित हो जाओ। मुझे एक महत्वपूर्ण चर्चा करनी है।
दमयंती: आप कहाँ से आ रहे हैं? आप कौन हैं? जो आपने सुरक्षित अन्तःपुर में प्रवेश किया है। यह अलक्ष्य समुद्र पार नहीं किया है क्या?
नल:(विनीत भाव से) भद्रे! तुम्हारी कोमल काया स्वस्थ है न? तुम्हारा चित्त प्रसन्न है न? सुनो कर्णान्त दीर्घ नयने! मैं निषध देश का राजा नल हूँ। इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम- ये चारों देवता तुमसे परिणय करना चाहते हैं। तुम इनमें से किसी एक का वरण कर लो। यही संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। उन देवताओं के प्रभाव से ही मैं अदृश्य हो गया हूँ। जब मैं तुम्हारे महल में प्रवेश करने लगा, तब मुझे कोई देख नहीं सका। तुम अतिथि सत्कार छोड़कर मेरे दूतकर्म को सफल करो। मेरी विवशता और धर्मनिष्ठा के चलते मुझपर कृपा करो। मैं वचनबद्ध हूँ। परकार्यसिद्धि हेतु अंतःपुर में प्रविष्ट हुआ हूँ। मैंने देवताओं का सन्देश कह दिया। (स्नेहमयी दृष्टि से देखते हुए) कल्याणी! तुममें इन्द्रादि दिक्पालों का चित्त आसक्त है। अब जैसा विचारो वैसा करो।
दमयंती: (किंचित हँसती है, फिर गंभीर होकर) हे राजा नल! आपकी अमृतमयी वाणी मैंने सुनी। पहले यह निवेदिता आपके श्री चरणों में प्रणाम करती है। पुनः प्रणाम करती है देवगणों को जिनके आग्रह और अनुग्रह से आपने दर्शन दिया। आपने यहाँ पधार कर गुरुतर उपकार किया है, उसके उपयुक्त प्रति-उपकार क्या हो सकता है नरेन्द्र? आप आज्ञा कीजिए, मैं आपकी यथाशक्ति सेवा करूँ। मेरे स्वामी! मैंने जिस दिन से हंस की बात सुनी है, उसी दिन से मैं व्याकुल हूँ और आपके लिए ही मैंने राजाओं की भीड़ इकट्ठी की है।
नल: (दमयंती की वाक्पटुता से विस्मृत हो कर) हे मधुभाषिणी समुध्यये! तुम बहुत निपुण हो। अंगीकार कराना जानती हो। बोलने में ऐसी स्निग्ध समर्पिता वाक्पटुता दिखायी है कि मेरे उत्तर देने के लिए अवकाश ही नहीं रखा। हे मुग्धे! मुझे स्वयं में अपना रहने ही नहीं दिया। मेरी स्वाधीनता की कथा तो अब अस्तमित हो गयी। तुम्हारे वशीकरण शील गुणग्राम से मैं वशीभूत हो गया हूँ। परन्तु इसका ध्यान रखो कि मैं देवताओं के वचन से बँधा हूँ। मेरा निवेदन, मेरी बात सुनो।
जब बड़े-बड़े लोकपाल तुम्हारे प्रणय-संबंध के प्रार्थी हैं, तब तुम मुझ मनुष्य की आकांक्षा क्यों कर रही हो? उन ऐश्वर्यशाली देवताओं की चरण-रेणु के समान भी तो मैं नहीं हूँ! तुम अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं का अप्रिय करने से मनुष्य को घोर विपत्ति झेलनी पड़ती है।मनुष्य की मृत्य तक हो जाती है। तुम मेरे वचन की रक्षा करो और उनका वरण कर लो।
दमयंती: (घबरा जाती है। दोनों नेत्रों से आँसू झरने लगते हैं। भयभीत होकर कहती है-) नाथ! देवता केवल मेरे प्रणाम के योग्य हैं, वरण करने के योग्य नहीं। आपके प्रश्न का उत्तर नहीं देने से आपका अपमान होगा, इस कारण मैं आपका उत्तर देना चाहती हूँ। मैंने निषधेश्वर नल को बहुत समय से मन से वरण कर लिया है। अतः इन्द्रादि दिक्पालों के सन्देश पर मन से विचार भी नहीं करना चाहती, कार्य से उन्हें स्वीकार करना तो दूर की बात है।
नल: हे पिकवयनी! तुम्हारा देवों से विमुख होना ठीक नहीं है। आयी हुई निधि के लिए किवाड़ बन्द करना कहाँ तक उचित है! देवों के अनुग्रह से तुम देवी बन जाओगी। स्वर्ग अपने यहाँ आश्रय देने के लिए तुम्हें बार-बार मानो हठ से खींच रहा है,किन्तु तुम नहीं चाहती, यह आश्चर्य है। तुम अपना मूर्खतापूर्ण दुराग्रह छोड़ दो मृदुभाषिणी!
दमयंती:(लम्बी साँस लेती हुई) प्रियवर! आपका सन्देश कर्णकटु एवं मुझ पतिव्रता के लिए अपकीर्तिकारक है, अतः उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूँगी। मेरे जीवन का एक मात्र आधार होने से मेरे ऊपर आपका पूर्ण प्रभुत्व है। (क्रोध से) मेरे वरमाला से कल स्वयंवर में राजा नल की ही पूजा होगी। यदि देवताओं को मुझ पर अनुग्रह करना है, तो वे प्रसन्न हो नल को ही पति रूप में भिक्षा देकर अपनी कृपा को चरितार्थ करें। राजाधिराज! मेरी दृढ़ प्रतिज्ञा सुन लें! (विलाप करती हुई गिर पड़ती है।)
जीवंत प्रस्तुति.
नल-दमयन्ती के कथा मैंने संस्कृत में पढ़ी है. सचमुच बहुत अद्भुत है ये प्रेम कथा. लेकिन मैं स्क्रीन पर बहुत गंभीर लेख पढ़ने की आदी नहीं हूँ. आप जब इसे पूरा लिख लें तो pdf फ़ाइल में मुझे दे दीजियेगा. मैं प्रिंट निकलवाकर पढूंगी.
प्रिंट निकालकर पढ़ने की आदत मेरी भी है! गिरिजेश जी की तो कई रचनायें मैं प्रिंट कर ही पढ़ता रहा हूँ, अनेकों अन्य भी। सो आपका आदेश सिर माथे! ज़रूर भेजूँगा।
आभार!
बहुत प्रमाणिक तरीके से निर्वाह हो रहा है कथा का -यह आप ही कर सकते थे !
देवताओं और पुरुषों में चुनना कठिन है, उर्वशी ने पुरुष को चुना। प्रेम सर्वोपरि है, जिधर ले जाये।
कथा में कुछ भी अपना संभव ही नहीं! कोशिश रहेगी प्रामाणिकता की!
निश्चय ही प्रेम सर्वोपरि है…एकनिष्ठ!