’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में। इस विशिष्ट ग्रंथ का हिन्दी काव्यानुवाद। बारहवीं कड़ी।
त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकररुचिभ्यां धृतगुणम् ॥
धनुर्मन्ये सव्येतरकरगृहीतं रतिपतेः
प्रकोष्ठे मुष्टौ च स्थगयति निगूढान्तरमुमे ॥४६॥
कुटिल भृकुटि युगल नयन की
ओ भुवनभयहारिणी हे!
तुल्यताधृत ज्यों शरासन
सुसज्जित मधुकरमयी अभिराम प्रत्यंचा जहाँ है
वाम करतल में स्वयं धारण किए
जिसको मदन है
भ्रू धनुष के मध्य उसकी मुष्टि स्थापन की
सुसंगत बन गयी सम्यक व्यवस्था है॥
अहः सूते सव्यं तव नयनमर्कात्मकतया
त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया ।
तृतीया ते दृष्टिर्दरदलितहेमाम्बुजरुचिः
समाधत्ते सन्ध्यां दिवसनिशयोरन्तरचरीम् ॥४७॥
प्रकट करता है
दिवाकर को नयन दक्षिण तुम्हारा
वाम लोचन से तुम्हारे
सोम का होता सृजन है
विकच स्वर्ण विमल कमल सम
रूपवंत तृतीय लोचन
हे त्रिनयने!
समुद्भासित हो रहा ज्यों
दिवस निशि के मध्य
संध्या समासीना॥
विशाला कल्याणी स्फुटरुचिरयोध्या कुवलयैः
कृपाधाराधारा किमपि मधुराभोगवतिका ।
अवन्ती दृष्टिस्ते बहुनगरविस्तारविजया
ध्रुवं तत्तन्नामव्यवहरणयोग्या विजयते ॥४८॥
दृष्टि कल्याणी तुम्हारी विशालाख्या
कमलिनी ज्यों
वह अयोध्या पद्मरुचिरा
कृपाधाराधराधारा
भोगवति मथुरा वरेण्या
दृष्टि जयवन्ती अवन्ती
बहुनगर विस्तार विजया
व्यवहृता तद्नाम संज्ञक
दृष्टिभंगी
विजयिनी हे!
कवीनां सन्दर्भस्तवकमकरन्दैकरसिकं
कटाक्षव्याक्षेपभ्रमरकलभौ कर्णयुगलम्
अमुश्चन्तौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वादतरला-
वसूयासंसर्गादलिकनयनं किंचिदरुणम् ॥४९॥
कवि भणितपद पुष्प गुच्छ
मरंद गंध रसार्द्र
कर्ण तक पसरे तुम्हारे
नवल नव रस स्वाद लोलुप
भ्रमर शिशुवत चपल लोचन
कर्णकोर न छोड़ते हैं,
देख यह ईर्ष्या विवश हो
भालस्थित जो चक्षु तेरे
सहज किंचित लालिमा
स्वीकारते
हे अरुण नयने!
शिवे शृंगारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा
सरोषा गंगायां गिरिशचरिते विस्मयवती
हराहिभ्यो भीता सरसिरुहसौभाग्यजननी
सखीषु स्मेरा ते मयि जननि दृष्टिः सकरुणा ॥५०॥
हर हृदीश्वर हेतु
अति शृंगारमयि स्नेहाम्बुतरला
इतर जनहित उपेक्षामयि
देवसरिता हित सरोषा
शिव चरित्र विमुग्धिता विस्मयवती
शिव सर्पभीता
कमलिनी
सौभाग्यजननी
सखीगणहित मधु सुहासा
मुझ अकिंचन हेतु
तेरी दृष्टि करुणामयि
जननि हे!
क्रमशः---