हिन्दी ब्लॉग लेखन के कई अंतर्विरोधों में एक है सोद्देश्य, अर्थयुक्त एवं सार्वजनीन बन जाने की योग्यता रखने वाली प्रविष्टियों, और आत्ममुग्ध, किंचित निरुद्देश्य, छद्म प्रशंसा अपेक्षिता प्रविष्टियों का सह-अस्तित्व। सोद्देश्य, गहरी अर्थवत्ता के साथ लिखने वाला ब्लॉगर अपनी समस्त रचनाधर्मिता के साथ बस लिख रहा होता है, बिना विचारे कि परिणिति क्या है इस लेखन की। इस राह पर जिस पर वह चला है, अनंत राही हैं। अनगिन पद चापों से ध्वनित है यह ब्लागरी की राह।
सोद्देश्य लिखने वाला ‘शब्द’ के लिए श्रद्धावनत है। उसके लिए शब्द नैवेद्य हैं- ऐसी वस्तु जिसके लिए अगाध श्रद्धा का ज्ञापन हो । तो फ़िर वह जो भी प्रस्तुत करता है- आस्था के साथ। और फ़िर भले ही पाता है एक छोटा सा हिस्सा प्रतिक्रिया के तौर पर, पर उसी में मुदित विभोर हो जाता है। वह कभी अनथक श्रम की दुहाई नहीं देता, अतिरंजना नहीं करता। सार्थक रचनाएँ कराने वाला यह नया अन्वेषी नयी तरकीब से साहित्य एवं सर्जना की सेवा करता है। वह देशी-विदेशी विचार-साहित्य को मथता है और उसका अमृत उदार भाव से प्रस्तुत कर देता है। यद्यपि उसका अन्वेषण देखकर कुछ लोग प्रशंसा करते है, कुछ लोग ईर्ष्या।
साथ ही गहरी गतिमयता के साथ लिखते है वे लोग भी, जिनके लिए शब्द कंकड़ की मानिंद हैं । वे विशाल शब्द जाल खडा करते हैं, बड़ी प्रविष्टियाँ देने की सामर्थ्य रखते हैं, पर अंगरेजी कवि ‘पोप’ की दृष्टि में उनके “शब्द पत्तियों के सदृश हैं और जब उनकी सर्वाधिक बहुलता होती है तो उनके नीचे बुद्धिमानी का फल कदाचित ही कभीं मिलता है “-
Words are like leaves and where they most abound
much fruit of sense beneath is rarely found.
Alexander Pope
आत्ममुग्ध, यांत्रिक चिट्ठे एक लंबा हिस्सा घेर लेते हैं। उनकी उपस्थिति से ही चिट्ठाजगत समृद्ध होता है। ये चिट्ठे ब्लॉग जगत की गति को समायोजित करते हैं। इन चिट्ठों की चौकडी भरती हुई गति ही इनका आकर्षण है। इनसे निर्मित होता है चिट्ठाजगत का एक बड़ा हिस्सा।
ब्लॉग लेखन का यह अंतर्विरोध, कि सार्थक, मूल्यनिष्ठ लेखन करने वाले चिट्ठाकार एवं निरुद्देश्य, अवांछित, केवल मनोरंजन के लिए कलम चलाने वाले चिट्ठाकार, दोनों एक ही राह पर चलते हुए दिखायी पड़ते हैं, अत्यन्त रोचक है। अंतर्विरोध एवं उसका समन्वय रचना के संसार की विरल विशेषता है और वस्तुतः यही ब्लॉग-जगत की जीवन्तता एवं गतिशीलता का प्रमाण भी है।
खत्म करते-करते: सच में, मैं भी एक आत्म-मुग्ध साहित्य-अध्यवसायी हूँ एवं बहुत कुछ को (इस ब्लॉगरी को भी) साहित्य-दृष्टि से देख सकने की आत्म-श्लाघा का शिकार मनुष्य। अतः यहाँ मेरे इस चिट्ठे पर यदि इस प्रकार के लेख उपस्थित होते हैं, तो आश्चर्य क्या? इत्यलम।
अच्छी चर्चा…और मनमोहक शब्दों में प्रस्तुती बेहद भायी..
bahut badhiya post….:)
आत्ममुग्ध, यांत्रिक चिट्ठे
वाह, कभी कोई कम्प्यूटर मुझसे बेहतर न लिखने लगे! नया और मौलिक!
बहुत अच्छा विश्लेषण किया है..भिन्न भिन्न प्रकार के लिखने वालों का–
वाह ,मंत्रमुग्ध कर देने वाला विश्लेषण जिसका शब्द शब्द गहरी अर्थवत्ता से संपृक्त है !
‘यांत्रिक’ का इतना यांत्रिक अर्थ ‘ज्ञान जी’ समझते व निकालते होंगे, इसमें मुझे संशय है. शायद शब्दावली के बेधड़क यांत्रिक प्रयोग ने लिखवा दिया होगा मुझसे यह शब्द.
अब मैं मन्त्रमुग्ध हूँ की आत्ममुग्ध समझ नहीं पा रहा हूँ। बंधुजीवन ही विरुद्धों का सामंजस्य है। लिखने दीजिये। आख़िर विचारों को भी ताज़ी हवा की जरूरत होती है।
चलते चलो ये राह जहाँ तक चली चले,
बसने दो बस्ती, भले ही बेतरतीब सही.
बाशिंदे तो बनें पहले.
हाय हाय ये मजबूरी !!!!
ब्लॉग लेखन बड़ा जरूरी !!!!
सार्थक चिंतन!!!