तुम्हें सोचता हूँ निरन्तर अचिन्त्य ही चिन्तन का भाव बन जाता हैठीक उसी तरह, जैसे, मूक की…
वर्ष अतीत होते रहेपर धीरज न चुकाऔर न ही बुझातुम्हारा स्नेह युक्त मंगल प्रदीप, महसूस करता हूँ-तुम…
चुईं सुधियाँ टप-टपआँखें भर आयीं । कैसे अवगुण्ठन को खोलतुम्हें हास-बंध बाँधा थाकैसे मधु रस के दो…
समय की राह सेहटा-बढ़ा कई बारविरम गयी राह ही,मन भी दिग्भ्रांत-साअटक गया इधर-उधर । भ्रांति दूर करने…
“जीवन के रोयें रोयें कोमिलन के राग से कम्पित होने दो,विरह के अतिशय ज्वार कोठहरा दो कहीं…
हे बहु-परिचित सूर्य !नहीं पा रहा हूँ तुम्हें नये सिरे से पहचान,पहचान नहीं पा रहा ….उत्तरी हवा…