वसंत प्रकृति का एक अनोखा उपहार है। आधी फरवरी से आधे अप्रैल तक का समय वसंत का समय है। इसमें स्वतः ही वृक्षों में फूल तथा जल एवं वनस्पतियों में सुगंध आ जाती है। न जाने क्या हो जाता है कि शिशिर के घोर संताप से संत्रस्त प्रकृति ऋतुराज वसंत के आते ही अपना नूतन श्रृंगार करने लगती है। यह ऋतु फाल्गुन में जन्म लेती है, चैत्र में जवान होती है और वैशाख बीतते पुनः अपने विश्राम में चली जाती है।

वसंत एक दूत है विराम जानता नहीं,
संदेश प्राण के सुना गया किसे पता नहीं ।
पिकी पुकारती रही पुकारते धरा गगन,
मगर कभी रुके नहीं वसंत के चपल चरण ।

आज ही नहीं जब से मनुष्य ने आँखें खोली हैं, वसंत का हर्षोल्लास उसे हँसाता, खिलाता और प्रफुल्लित करता रहा है। इस भूमंडल का सभ्य, असभ्य और उन्नत, अवनत प्रत्येक मानव इस ऋतु में स्वाभवतः आनन्दमग्न होकर अपने हृदय की आनन्द राशि बिखेरने के लिये उतावला हो जाता है। कविकुल गुरु कालिदास ने ’सर्वं प्रियं चारुतरं वसंते’ से अपनी रमणीक रचना का श्रृंगार किया है।

प्राचीन काल से अनेकों अनेक उत्सव इस ऋतु में आयोजित होने के लिये कतार बाँध कर खड़े हो जाते हैं। जिस दिन यह ऋतु सर्वप्रथम इस भूमंडल पर अवतरित होती थी उस दिन सुवसंतक उत्सव मनाया जाता था। यह वसंत पंचमी का ही प्रतिनिधि था।

वसंत में लाल वस्त्र और लाल पुष्प धारण करने का आम रिवाज था, इसके लिये पुष्पावचायिका नाम से एक उत्सव मनाया जाता था। मदनोत्सव, अशोकोतंसक आदि उत्सवों के नाम प्राचीन ग्रंथों में भरे पड़े हैं। कुछ-कुछ जरूर होने लगता है इस ऋतु में, इसलिये संस्कृत साहित्य और हिन्दी साहित्य में भी इस ऋतु के अगणित गीत गाये गये हैं। स्वागत में दोनों हाथ उठाकर कवियों ने कहा है-

जय वसंत रसवंत सकल सुख सदन सुहावन
मुनि मन मोहन भुवन तीन जिय प्रेम गुहावन।

याद आ जाती है जन-जन को बीती हुई रसवंती घड़ी। यह दौड़ते हुए ऋतुराज वसंत का समक्ष होकर आलिंगन करने का बाहु-प्रसरण क्या भुलाये भूल सकता है-

फेरि वैसे कुंजन में गुंजरन लागै भौंर
फेरि वैसे क्वैलिया कुबोलन ररै लगीं।
फेरि वैसे पातन में पूरि गौ पराग पीत
फेरि त्यौं पलासन में आगि सी बरै लगी॥
फेरि वैसें पपिहा पुकारै लागै नन्दराम
फेरि वैसें धाम-धाम सौरभ भरै लगी।
फेरि वैसे उधमी बसंत विस्वासी आयौ
फेरि वैसें डारन में डाक-सी परैं लगी॥

नन्दराम

ऋतुराज वसंत का एक संदेश, आमंत्रण, बुलावा यदि किसी को याद है तो जीवन में जरा और व्याधि दोनों का पलायन स्वतः हो जाता है। किसी के लिये तरसना, किसी के लिये हरषना, किसी को सर्वस्व समर्पित करना, किसी से सर्वस्व याचना करना- ये जिंदगी के पालने हैं जिस पर वासंती ऋतु प्राणों को सुलाती रहती है-

सखि ! आयो वसंत रितून को कंत, चहूँ दिसि फूल रही सरसों
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परसों के बिताय दियो बरसों, तरसों कब पाँय पिया परसों।

परिवर्तन के झोंके बौरे वसंत की गज़ब की अंगड़ाई लेकर आते हैं, इसलिये यदि कहीं  कोई आह उठती हो तो वह भी इतनी वासंती होती है कि दर्द मीठा गाने लगता है-

को बचिहैं एहि बैरी बसंत ते आवत यों बन आग लगावत
बौरति ही करि डार है बौरी भरे विष बैरी रसाल कहावत।
ह्वैहैं करेजन की किरचें कवि देव जू कोकिल कूक सुनावत
बीर की सों बलबीर बिना उड़ि जायेंगे प्राण अबीर उड़ावत।।

’बनन में बागन में बगरयौ बसंत है ’ की धमक किसे नहीं सुनाई पड़ जाती! तुलसी का ’मनहु मुएहु मन मनसिज जागा’ का बिंब सामने खड़ा हो जाता है। लगता है आज धनुष लिये हुए काम वन में विचर रहा है- ’सम्प्रति काननेषु सधनुर्विचरित मदनः’। और क्या कहा जाय- “चिड़ियों के चहचहे को बाजा बनाकर , प्रेम के रस से मतवाली कोकिलायें गीत गा रही हैं। वन के अंतःपुर की कामिनी रूपी लता आचार्य वायु के उपदेश से अभिनय कर रही है। इस लता को वृक्ष अपने फूलों से हर्षित होकर पल्लव रूपी अंगुलियों से फुसला रहे हैं। श्रीमान वसंत के आते ही हार जैसा सफेद पाला फौरन गायब हो गया

आतोद्यं पक्षिसंघास्तरुरसमुदिताः कोकिला गावन्ति गीतं
वाताचार्योपदेशादभिनयति लता काननान्तःपुरस्त्री।
तां वृक्षाः साधयन्ति स्वकुसुमहृषिताः पल्लवग्रांगुलीभिः
श्रीमान प्राप्तो वसन्तस्त्वरितमपगतो हारगौरस्तुषारं॥

शिशिर रूपी बुढ़ापे से जर्जर, संवत्सर की सुन्दरी वसंती जवानी हिमरूपी रसायनखाने से लौटकर फिर उसके पास आ जाती है। एक सहृदय को लग रहा है- “हिलती कोपलों से नाचते हुए वृक्षों वाला और फूली लताओं से लिपटा हुआ वन यौवन पर आ रहा है। तिलक वृक्ष पर बैठी कोयल जूड़े-सी लग रही है और कुन्द के फूल पर बैठा भौंरा कामिनी के कटाक्ष का काम कर रहा है। कहीं नये उभरे छोटे स्तनों वाली कन्या की तरह कमलिनी साँवली कलियों-सी शोभित है, कहीं वसंत के वायु-समूह रति-श्रम के पसीने से भरे स्त्री के पीन-स्तनों के स्पर्श की धूर्तता करते बह रहे हैं-

तिलकि शिरसि केशपाशायते कोकिलः कुन्दपुष्पेस्थितः स्त्रीकटाक्षायते षटपदः ….”

ऋतुराज वसंत का एक दृश्य

यह उत्सव का परिवेश सँजोये ऋतु जगह-जगह फूलों की दुकान सजवा देती है। ऋतु की सर्वोत्तमता केवल उल्लास में नहीं, स्वास्थ्य की संजीवनी में भी छिपी है। यह वरदान है जन-जन के लिये। नाना प्रकार के पुष्पों की सुगंधित पवन से प्राणदायिनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

मनुष्य की पाचन शक्ति बढ़ जाती है, मन का विषाद मिट जाता है, नवीन चेतना अँगड़ाई लेने लगती है, कार्य-क्षमता में सहज वृद्धि हो जाती है। इस तरह प्रभावशाली ढंग से यह ऋतु अपने आगोश में लेती जाती है। जो हूक उठती है, उसे रक्त-संचार का नवीनीकरण मान लें तो अतिशयोक्ति नहीं। खून के बीच जमा थक्का (क्लॉटिंग) टूटना ही टूटना है। एक कवि ने कहा है-

क्यों सहिहैं सुकुमारि ’किसोर’, अली कल कोकिल गावन दै री
आवत ही बनि है घर कंतहि, बीर बसंतहि आवन दै री।

उस आनंद को कौन छीन सकता है जब एक ही साथ इस ऋतु में नंदलाल और गुलाल दोनों ब्रजबाला की ओर दौड़ पड़े थे। पद्माकर की उस नायिका की आँखों से रंग तो निकला किन्तु रंगरेज नहीं निकल पाया-“ए री मेरी बीर! जैसे तैसे इन आँखिन ते / कढ़ि गौ अबीर पै अहीर तौ कढ़ै नहीं।”

‘कंत बिन कैसे ये बसंत ऋतु बीतैगो ’ का उन्मेष ही उस धन्यता का जन्मदाता है जो इस ऋतु के लिये सर्वग्राह्य सुख है-“धनि वे वनिता मनिता जग में सजि कंत के संग वसंत जो खेलती।”

इस वसंत को बेहद प्यार देते हुए कोई भी इस पर बलिहारी हो जाता है। वसंत का हम अभिनन्दन करते हैं। यह हमें बोध दे रहा है-

आज आया है प्रिय ऋतुराज, सजा है स्वागत का सब साज
कर रहा नवजीवन संचार, भर रहा मन में मोद अपार।
मिला है अवसर अति अनुकूल समय है सचमुच मंगल मूल
करें नवयुवक देश कल्याण हरें पर-पीर, ’दान दें’ प्राण।

वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें !