Leave This Chanting and Singing and Telling of Beads is a poem by the renowned Indian poet Rabindranath Tagore. It is a part of his collection “Gitanjali” (Song Offerings), for which he won the Nobel Prize in Literature in 1913. The poem is an expression of Tagore’s deep philosophical thoughts and his critique of ritualistic and formalistic approaches to spirituality.
Original Text of the Song
Leave this chanting and singing and telling
of beads! Whom dost thou worship
in this lonely dark corner of a temple
with doors all shut ? Open thine eyes
and see thy God is not before thee!
He is there, where the tiller is
tilling the hard ground and where
the path maker is breaking stones.
He is with them in sun and in shower,
and his garment is covered with dust.
Put off thy holy mantle and even like
him come down on the dusty soil!
Deliverance ? where is this deliverance
to be found ? Our master himself
has joyfully taken upon him the
bonds of creation; he is bound with us all for ever.
Come out of thy meditations and
leave aside thy flowers and incense!
What harm is there if thy clothes
become tattered and stained?
Meet him and stand by him in toil and in sweat
of thy brow.
छोड़ो यह भजन गान छोड़ो जप माला, कविता प्रसिद्ध भारतीय कवि रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित है। यह उनके संग्रह ‘गीतांजलि’ में संग्रहित है, जिसके लिए उन्होंने 1913 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह कविता टैगोर के गहरे दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति है और आध्यात्मिकता के अनुष्ठानिक और औपचारिक दृष्टिकोणों की समीक्षा है।
Hindi Translation by Prem Narayan Pankil
छोड़ो यह भजन गान छोड़ो जप माला
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
सुरगृह में रुद्ध सदन अन्धतमस खोना
भजता जिसको उसका सम्भव क्या होना?
देवता न वहां खोल देख द्वार ताला –
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
वहां गया जहाँ कृषक कर रहा जुताई
गढ़ता पाषाण तोड़ पथ की सुघराई
शिशिरातप जल में सन धूसर पट वाला –
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
मुक्ति? उसे खोज रहा कहाँ मुक्तिकामी
ईश्वर भी बद्ध सदा सृष्टि सृजन नामी
विविध भाँति रचता संबंधों का जाला-
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
बहार निकलो प्यारे अब समाधि तोड़ो
अगरु धूप शुची सुगंध सुमन-माल छोड़ो
छोड़ो कर की मनका छोड़ो मृगछाला-
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
अब जन सामान्य बीच चलो छोड़ सुर घर
कौन हानि यदि विदीर्ण जीर्ण-शीर्ण अम्बर
हानि क्या हुआ जो वर धवल वसन काला-
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
अपने विश्वंभर से चल मिल ले प्यारे
वहीं रह समीप खड़ा जहाँ प्राण प्यारे
स्वेद-सिक्त श्रम पंकिल खड़ा नंदलाला-
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला॥
बहुत ही बढिया रचना प्रेषित की है।एक अच्छी रचना पढ़वाने के लिए आभार।
अब जन सामान्य बीच चलो छोड़ सुर घर
कौन हानि यदि विदीर्ण जीर्ण-शीर्ण अम्बर
हानि क्या हुआ जो वर धवल वसन काला-
मन्दिर में बैठ किसे पूजता निराला ॥