मैं कौन हूँ ? क्या मुझे संजरपुर का नाम नहीं पता ? आजमगढ़ का एक गाँव जो गलियारे से शयनकक्ष तक अपनी मुचमुचाती हुई अनिद्रित आंखों के साथ लगातार उपस्थित है, शायद वही संजरपुर है। स्वीकृति और अस्वीकृति के मध्य कौन खड़ा है -शायद संजरपुर। खुफिया एजेंसिओं, एटीएस, देश भर की पुलिस-आजमगढ़ की भी- की आँखों का तारा संजरपुर ही तो है। मैं नहीं जानता संजरपुर को – पर सच कहूं तो जानता हूँ। मैं जिस संजरपुर को जानता हूँ वह खुफिया विभागों या पुलिस का प्यारा संजरपुर नहीं है। वह एक भारतीय गाँव का साधारण सा प्रतीक है। हर एक गाँव की तरह इस गाँव में भी आदमी की सच्ची जात रहा करती है। वक्त ने इस गाँव से इसकी बनावट या बुनावट छीन ली है। जंगली फूल हो गया है संजरपुर । गूंगा, बिन होश । पर सच कहूं –
“एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।”
कैसा हो गया है हमारा सुरक्षा तंत्र ? बस संजरपुर, सरायमीर, आजमगढ़ ? कुछ और याद नहीं इस तंत्र को। कब तक बेमतलब बा-सलीका झूठ बोलता रहेगा यह तंत्र। और हम भारत के लोग संत ह्रदय के लोग हैं ? क्या करें-
“वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से मैं एतबार न करता तो और क्या करता ?”
मैं, मेरे घर के बच्चे, अब तो कुछ दिनों में पूरा हिन्दुस्तान कुछ नामों का आदी हो गया है । मुझे लगता है कि ये नाम – साजिद,सैफ,रशीद या कुछ ऐसे ही- संजरपुर की हवाओं से उठकर पूरे देश के वातावरण में, हर मन में घुल-मिल गए हैं। ये नाम किसी और के नहीं,आतंकियों के होंगे- ऐसा सबको लगता है।
मैं संजरपुर का नाम प्रासंगिक तौर पर ‘संज्वरपुर’ रख देना चाहता हूँ। संज्वरित है यह गाँव एक संक्रामक ज्वर से । स्वीकार से उपजा है यह निषेध । हम यह मान सकने की स्थिति में हैं कि होगा कहीं कोई कुलिश – धंस सकने लायक। और यहाँ से हमारे मानवीय जातीय भाव(दृष्टिकोण )का निषेध शुरू होता है। पर संजरपुर को आतंक की शरणस्थली समझने वाले लोग अपनी अस्मिता को नकारने की कोशिश कर रहे हैं। संजरपुर आहत, चेष्टाशून्य केवल फरियाद ही तो कर सकता है –
“या रब, न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात दे और दिल उनको या फिर मुझको जुबाँ और”
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ओह ! तो सामयिक सरोकार भी इतना सहेजते रहे , इसकी
गति को और बढ़ाएं आर्य ! …