आज मैना उड़ चली
पिता के घर से पिया के घर
गीलीं हो आयीं पिता के घर की दीवारें, चौखटे, फर्श और दरवाजे-
आंखों का पानी थमा ही कहाँ ?
और इस गीले फर्श पर फिसल फिसल कर
गिरने लगीं सारी यादें पिछले पल की ।
पिया के घर तो जैसे उजाला हो गया
उड़ने लगीं उस घर की आशाएं, आकांक्षाएं
और जाकर गिरीं उस बहू की गोद में ।
कट गए पंख उसके उत्साह के
सुनने लगी वह वैभव का वार्तालाप ।
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हाँथ से तोते उड़ गए जब देखा
इस भारतीय नारी का परमेश्वर भी रटता है वही जबान
जो रटते हैं सब -अतिरेकी, पराये, लोलुप ।
‘लक्ष्मी’ से लक्ष्मी की निराशा
उन्हें खाए जा रही है
लग गए हैं पंख वासना के,
प्रेम-विहग कहीं दूर अपने पर कटा कर छटपटा रहा है
और वह रह गयी है एक – एक ठूंठ-सी ।
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छूट गया है पिया का घर
और निकल आयी है वह रात के अंधेरे में ,
अब वह है अज्ञात के प्रति उत्साहित ।
बिछल रहे हैं स्मृति-पट पर कई विगत चित्र –
पिता-पिता का घर,पिया-पिया की देहरी,
पुत्री,बहू,गृहलक्ष्मी और निष्कासिता व प्रताडिता वह
विचार मग्न और आलम्ब-शून्य अभी अभी
जा गिरी है सड़क के किनारे – ऊपर से निकल गयी है एक गाड़ी,
कट गए हैं पंख उसकी चेतना के
उड़ गया है प्राण-पखेरु ।
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अभी अभी उड़े हैं गिद्धों के झुंड
सड़क के किनारे पडी लावारिश लाश का करने अन्तिम संस्कार,
कट गए हैं पंख मानवता के
उड़ चली है आत्मा परमात्मा के पास ।
उड़ चली है आत्मा परमात्मा के पास
सच में ‘मैना’ ही नाम था उसका। मेरे पास अब केवल यादें शेष रह गयी हैं उसकी। छः बरस पहले अचानक ही लिख गयी थी यह कविता।
“बहुत खूब”
इतना सारा पढ़ कर बस इतनी सी तारीफ़ !!
पर निरुत्तर यानी लाजवाब कर दिया है आप ने. 🙂
क्या कहें ? सिवाय इसके कि मुक्ति मिल गई !
घुघूती बासूती
अरे… अब तो शव्द भी नही बचे.बहुत उदास कर गई आप की यह कविता धन्यवाद
प्रिय हिमांशु,
आपकी कविता ने तोः मेरी पलकें भिगो दी, और क्या कहूँ अब शब्द है नही मेरे पास, आपको शत-शत नमन है।
नलिन
हिमांशु भाई…आज ही आपकी लेखनी देखी….और अच्छा लगा…….लिखते जायें….और अच्छा लगेगा……….!!