मेरी यादों में खोयी अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगाजल होती हो ।
सबका अभिनन्दन करती हो, लेकर अक्षत, चंदन, रोली
मन में सौ पीड़ाएं लेकर, सदा बांटती हंसी ठिठोली
जब-जब हम लयगति से भटकें, तब-तब तुम मांदल होती हो।
जीवन भर दुःख के पहाड़ पर, तुम पीती आंसू के सागर
फ़िर भी महकती फूलों-सा, मन का सूना-सा संवत्सर
मन के दरवाजे पर दस्तक देती तुम सांकल होती हो ।
व्रत,उत्सव,मेले की गणना कभी न तुम भूला करती हो
संबंधों की डोर पकड़कर, आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से ज्यादा निर्मल होती हो ।
पल-पल जगती सी आँखों में मेरी खातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को मन्दिर में घंटियाँ बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती तब-तब तुम काजल होती हो ।
हम तो नहीं भगीरथ जैसे कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो तुमको हम किस जल से तारें
तुम पर फूल चढाएं कैसे, तुम तो स्वयं कमल होती हो ।
ek behad khoobsoorat kavita padhane ke liye hardik aabhar aapka.
इस कविता को पढ़वाने के लिए तहे दिल से धन्यवाद
बहुत ही सुंदर रचना. वैसे पूजा जी की कविता भी वंडरफुल थी. आभार.
माँ माँ ही होती है .
वाह वाह क्या बात है, मेरे मन की बात आप ने लिख दी.
धन्यवाद
अच्छी कविता पढवाने का शुक्रिया !
आपके प्रोत्साहन के लिये हार्दिक आभार। आगे भी इसी तरह के शोधपरक लेख आपको और देखने के लिये मिलेगें। आपका ब्लॉग का भी मेरे लिए अध्य्यन और रूचि का विषय है, जिसके परिणाम आपको जल्द ही देखने को मिलेगें।
भाई आप की ऊर्जा को प्रणाम और आप की पढ़ने की गंभीरता को भी प्रणाम्