बड़ी घनी तिमिरावृत रजनी है। शिशिर की शीतलता ने उसे अतिरिक्त सौम्यता दी है। सबकी पलकों को अपरिमित विश्रांति से भरी हथेलियां सहलाने लग...

मैं शय्या-सुख से विरत हो बाहर निकल आया हूं। नक्षत्र खचित नीरव-रात्रि का आकर्षण बड़ा अद्भुत है। स्वच्छ टिमटिमाते तारों के अक्षर में लिखी आकाश-पाती प्राप्त हुई है। सांसे विराट के सन्देशों का स्वगत वाचन प्रारंभ कर देती हैं। याद आ जाती है ’भागवत’ के ’गजेन्द्र मोक्ष’ की वह पंक्ति -
"तमस्तदासीत गहनं गभीरं, यस्तस्य पारेभिराजते विभुं।"
(तब घोर गंभीर अन्धकार था। वह विभु उसीके पार बैठा था।)
बहुत गहरी से गहरी अनुभुति की मन्जूषा के पट खुल जाते हैं। अन्धकारपूरिता निशा मां की गोद-सी सुखद प्रतीत होती है। विविधाकार विलीन हो गया है। एक ही मां की ममतामयी गोद में सारा कोलाहल शांत हो गया है। 'One appears as uniform in the darkness'. मैं अंधेरे की लय में तल्लीन होने लगता हूं।
अन्धेरा परमातिपरम है। व्यर्थ ही भयभीत होते हैं हम इसके कारुण्यमय विस्तार में- "The mystery of creation is like the darkness of night." क्यों न प्रार्थना की विनत भावाकुलता में माथा झुक जाय।
मैं रात्रि की गहनता का चारण बन जाता हूं। डरो मत- ’मा भेषि’- का इंगित करती निशा को प्रणाम करता हूं। क्यों नहीं समझते हम कि प्रकाश का उत्स यह अन्धकार है। रात्रि की ही अधिष्ठात्री का नाम तो उषा है। पंत की भाषा में कहें तो क्या नहीं है यह रात्रि?- "देवि, सहचरि, मां!" बड़ी ही भावाकुलित बेला में टैगोर के मुख से निकला था -
I feel thy beauty, darknight, like that of the loved woman, when she has put out the lamp.
हमारी नासमझी ने रात्रि की गहनता को अबूझ पहेली बना दिया। मां के गर्भ से अन्धमय क्या होगा जहां सृजन अपने को संवारता है। हमारी ही भूल है कि हमने रात्रि की अंचल छांव को दुःखान्तक खेल समझ लिया। तुम्हारे सांय-सांय के स्वर में सन्नाटे का संगीत बार-बार हमें यही समझा रहा है- "मां भेषि, मां भेषि"- "मत डर, मत डर"। रात की इस गहनता ने समझा दिया है -
"We read the world wrong / and say that it deceives." - TAGORE
यह प्रविष्टि दो दिन पहले लिखी थी। इस प्रविष्टि को बहुत हद तक ललित निबंध का स्वरूप देने की प्रेरणा मेरे बाबूजी की है। बहुत सारे उद्धरण उन्हीं से लिए हैं, इस प्रविष्टि पर चर्चा करते हुए। बहुत कुछ मेरा नही है इसमें, पर हौसला मेरा है।
COMMENTS