मैं जिधर भी चलूँ
मैं जानता हूँ कि राह सारी
तुम्हारी ही है, पर
यह मेरा अकिंचन भाव ही है
कि मैं नहीं चुन पा रहा हूँ अपनी राह।
मैंने बार-बार राह की टोह ली
पर चला रंच भर भी नहीं, टिका रहा
मैं जानता हूँ कि दस-दिगंत में
तुम्हारा बधावा बज रहा है, पर
यह मेरे कान ही हैं जो इस ध्वनि को
नहीं सुन पा रहे हैं।
मैं क्या करुँ अपनी इस नींद का
कि तुम बार-बार
खटका देते हो मेरे द्वार, पर
यह आँखें खुलती ही नहीं।
मैं महसूस करता हूँ कि
अनगिनत गीतों का खजाना
पठाते हो तुम मेरे लिए, पर
मैं उन्हें गुनगुना नहीं पाता क्योंकि
मुझे उनकी धुन नहीं मालूम।
मैं ललचा रहा हूँ
कि तुम्हारे पाँव निरख लूँ
और खिंचा चला जाऊं तुम्हारी ओर,
और जबकि मैं जानता हूँ कि
तुम अवश बाँध जाते हो प्रेम-पाश में,
मैं अभागा
वह डोर ही नहीं बुन पा रहा हूँ।
मैं साहित्य का विद्यार्थी दुर्भाग्य से नही रहा -मगर ऐसे ही तुम्हारी कवितायें पढता रहा हो तो निश्चित ही छायावाद की समझ आ जायेगी ! प्रेम पंगी और आध्यात्म रस में डूबी इस कविता की साझेधारी के लिए बहुत आभार !
अरविन्द मिश्रा सही कहते हैं जो समझ में न आए उसे छायावादी कहकर निकल लो 🙂
“प्रेम पंगी और आध्यात्म रस में डूबी ”
देखा जाय तो ऐसे धड़ाम से किए गए सम्म्तिकरणों ( rationalizations) से अक्सर ,इसी कविता का ही नहीं ,बहुत सी कविताओं की अव्दितीयता( “divine otherness”) के साथ अन्याय होता है !
शायद हर सुंदर चीज/ प्रकिया एक अलग तरह से सुंदर होती ! उस सुन्दरता की परिभाषा ,उसके जन्म के पहले से मौजूद किन्हीं पुराने अर्थ प्रकिया के भौतिक संकेतों के सहयोग से कैसे की जा सकती है !! !
bahut sunder rachna, padhkar ravindra nath tagore ki rachnaon ki yaad aati hai. swapn