प्रेम के अनेकानेक चित्र साहित्य में बहुविधि चित्रित हैं। इन चित्रों में सर्वाधिक उल्लेख्य प्रेम की असफलता के चित्र हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रेम की असफलता एवं इस असफलता से उत्पन क्रिया-प्रतिक्रया पर काफी विचार किया जा सकता है, पर मैं यहाँ विचार नहीं, प्रेम की असफलता से उपजी प्रतिक्रया के दो कथा-प्रसंग लिख रहा हूँ। यह दो प्रसंग दो भिन्न मनोवृत्तियों का चित्र खींचते हैं। मैंने इन्हें ‘डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी’ के एक निबंध में पढ़ा और यहाँ प्रस्तुत करने से ख़ुद को रोक नहीं पाया। यद्यपि ये प्रसंग सर्वज्ञात हैं परन्तु फ़िर भी…।
प्रेम का स्वाद: पहला प्रसंग
अंग्रेजी साहित्य के प्रख्यात कथाकार आस्कर वाइल्ड (Oscar Wilde) के बाइबिल वर्णन पर आधारित नाटक सलोमी (Salome) से है। सेलोमी प्रसिद्द नृशंस अत्याचारी राजा हैरोड की सौतेली पुत्री है। हैरोड ने अपने राज्य के एक संत जोकानन को बंदी बना कर अपने कारागृह में रख छोड़ा है। सेलोमी इस जोकानन से प्रेम करती है और प्रयास करती है कि उसे उसके प्रेम का प्रतिदान मिले। अनेक प्रयत्नों के बाद भी उसे उसके प्रेम का प्रतिदान नहीं मिलता । एक अतृप्त कामना के वशीभूत होकर उसके मन में प्रतिशोध का भाव जगता है। वह हैरोड को अपने नृत्य से मुग्ध कर लेती है और उससे अपनी एक बात मान जाने का वचन ले लेती है। वह हैरोड से कहती है कि उसे जोकानन का सर काट कर दिया जाय। हैरोड अनेक आपत्तियां करने के बाद भी वचनबद्ध होने के कारण जोकानन का सर काटकर सेलोमी को देता है। सेलोमी उस कटे सर को अपने हाथ में लेती है और उसके होठों को चूमती हुई कहती है – “कहा जाता है कि प्रेम का स्वाद तीखा होता है”।
प्रेम का स्वाद: दूसरा प्रसंग
हिन्दी नाटककार जयशंकर प्रसाद के नाटक चन्द्रगुप्त का है। मालविका चन्द्रगुप्त को प्रेम करती है, और चन्द्रगुप्त को ही अपना सर्वस्व मानती है। मालविका का यह मौन-प्रेम निखरता जाता है, परन्तु चन्द्रगुप्त उसके इस मौन प्रेम व समर्पण को पहचान नहीं पता और किंचित पहचान भी लेता है तो मन से उसे स्वीकार नहीं करता। कारण, वह कार्नेलिया से अगाध प्रेम करता है। मालविका चन्द्रगुप्त से उपेक्षिता है, परन्तु वह अपने प्रेमी चन्द्रगुप्त की रक्षा के लिए अकेली उसकी शय्या पर सोती है, जहाँ चन्द्रगुप्त के धोखे में विरोधी दल के सैनिक उसका वध कर डालते हैं।
हिमांशु प्रेम के विविध पक्षों को भारतीय वांग्मय में बहुत ही गहराई से चित्रित किया गया है उर्वशी आख्यान में प्रेम विरह की आकुलता ,पुरु उर्वशी संवाद में उर्वशी का उपालंभ और भर्तृहरि त्रयी के श्रृंगार और वियोग प्रसंग हमारे अमूल्य धरोहर हैं ,उन्हें तो आप ने पढ़ ही रखा होगा !
ये दोनों प्रसंग की तासीर भी कुछ कम नहीं !
मानव मन के जितने रूप, प्रेम के भी उतने तो होंगे ही.
बढिया प्रसंग हिमांशु भाई,
आपको नव वर्ष की शुभ कामनाएं।
ये सब रूप तो हैं ही परन्तु प्रेम तभी प्रेम होता है जब दोनों तरफ से हो अन्यथा केवल कामना ही होता है।
घुघूती बासूती
प्रेम लेने का नहीं देने का नाम है. प्रेम का स्वाद मीठा होता है. लेने की जिद उस स्वाद को तीखा कर देती है. लेख के पहले प्रसंग में, लेने की जिद प्रेमी के जीवन की बलि ले लती है. दूसरे प्रसंग में देने की कामना ख़ुद का जीवन देकर प्रेमी के जीवन की रक्षा करती है.
इन प्रेम प्रसंगों ने हमे एक ऑस्ट्रेलियन की याद दिला दी. खैर फिर कभी. बहुत सुंदर प्रस्तुति रही.
प्रेम के रंग रूप अनोखे अदभुत हैं ..यह प्रसंग बहुत ही सुंदर है
हिमांशु जी प्रेम ?? जो पहला प्रसंग है वो प्रेम नही एक पागल पन है, दुसरा प्रसंग प्रेम का ही लगता है, प्रेम जरुरी नही विपरित लिंग से ही हो, प्रेम तो हम कुदरत से, जानवर से किसी से भी कर सकते है, ओर प्रेम हमेशा सुख दायी होता है, क्योकि प्रेम मांगता कुछ नही सिर्फ़ देना जानता है, अपने प्रेमी को बिना जताये, बिना बताये, बिना उसको अहसास दिये उस से प्रेम करना, उसे खुश देख्ना ही प्रेम है.
लोग जिसे दिवाना कहते है, वही असली प्रेम होता है.
धन्यवाद
भाई हमें तो सूरदास जी ने बताया था: अति सूधो सनेह कौ मारग है
@”भीतर कुछ बदल क्यों नहीं लेते?”
दिन भर बेचने के बाद
ठेले पर बची हुयी सब्जी नहीं है
मेरे भीतर का संसार
कि उसे दो मिनट में चट बदल दूं !
रात भर सुलगी
मास्क्यूटों किट की पीली पड़ चुकी टिकिया भी नहीं है
भीतर का संसार
कि तुरत ही रिप्लेस कर दूं !
न ही
लगातार महीने भर पहना गया
दुर्वह दुर्गन्ध बस्साता मोजा है वह
कि एक फेंक दूजा ले लूं !
वो बाहरी फोर्च में टंगा
सबसे विस्मृत , महत्वहीन , अपने “अधिवास” में
धूल से गंदला , छिपकलियों की बीट पुता
फ्यूज ज़ीरो वाट बल्ब भी नहीं है
कि नया लगा दूं !
चट , दो मिनट में .
वो
कूस के जंगल सा
मेरे भीतर का मेरा संसार है !
कभी मुझसे बच बचाकर,
(आपकी भाषा में )
किसी के स्नेह -मठ्ठे की बाढ़ आये
तो ही कुछ सम्भावना है !
प्रिय हिमांशू,
बहुत अच्छे विषय ढूंढ कर लिकते हो!! इस कलम को चलते रहने दो.
जैसा डा मिश्रा ने कहा, भारतीय धार्मिक और साहित्यिक रचनाओं में प्रेम के विभिन्न पहेलुओं को बहुत गहराई से उकेरा गया है.
मालविका के त्याग की कहानी सुनकर रोमांच हो आया !!
सस्नेह — शास्त्री