आलोचना प्रत्यालोचना एक ऐसी विध्वंसक बयार है जो जल्दी टिकने नहीं देती। प्रायः संसार में इसके आदान कम, प्रदान की उपस्थिति ज्यादा देखी जाती है। मेरे जीवन के क्षण इस बयार में बहुत बार विचलित हुए हैं। अभी कल की ही बात है। एक व्यक्ति ने मेरी रहनी पर रहम नहीं किया। मैं जिस मनोभूमि में कुछ लिखता पढ़ता हूँ, उस पर उसकी खरी टिप्पणी थी कि ‘कुछ नहीं मिलेगा इससे। तेरा स्वान्तःसुखाय दो कौड़ी का है। दुनियादारी का दामन पकडो। क्यों बर्बाद हुए जा रहे हो। “अर्थागमोनित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रिय वादिनी च” का सूत्र भूल कर भटक गए हो, मूर्ख कहीं के।
ऐसा पूर्व में भी कई बार घटित हुआ है, किंतु तब उसे मैंने समीक्षा के रूप में, अनुशीलन के रूप में लिया, आलोचन के रूप में नहीं। अब जब मुझमें विचलन ने स्थान बनाना प्रारंभ किया तो आत्ममंथन को बाध्य हो गया। “They also serve who stand and wait” की ‘Miltonic Feeling’ ने फिसलते पांवों को रोक दिया। किसी ने जैसे भीतर से संबल दिया कि कल्पना द्वारा प्रतीत होने वाला सत्य, बहुमत द्वारा मान्य सत्य, स्थूल रूप से दीखने वाला सत्य, विचारों की कसौटी पर खरा लगाने वाला सत्य और व्यवहार में माने जाने वाले सत्य का चिंतन करते रहो। दूसरों की तरह क्या होना है? क्या दूसरे वैसे हैं, जैसे तुम हो? मेरा मानक विचलन नहीं हो पाया।
आलोचना अभिमान का ही पोषण है
सामान्यतः यह देखा गया है कि आदमी दूसरे की आलोचना करने में आनंदित होता है, पर छिद्रान्वेषण की आँख यदि अपनी और खुल जाय तो अपना खालीपन भर जाय। ऊंची चढ़ाई चढ़ने के लिए हमें उन सीढियों पर अधिक ध्यान रखना होगा जो स्वयं हमारे पैरों के नीचे अवस्थित हैं। आलोचना अभिमान का ही पोषण है। प्याज-लहसुन को कूट कर यदि किसी पात्र में रखा जाय, और फ़िर उसे सैकड़ों बार क्यों न धोया जाय, उसकी गंध नहीं जाती। वैसे ही आलोचक में अभिमान का चिन्ह कुछ न कुछ रह ही जाता है।
प्रसिद्द दार्शनिक ‘देकार्त’ से उसके प्रति किए गए व्यवहार का बदला लेने की बात उसके शुभेच्छु कहते रहे; पर वे धीरे से बोले-
जब कोई मुझसे बुरा व्यवहार करता है, आलोचना की आग में जलने के लिए मुझे धकेलता है, तो मैं अपनी आत्मा को उस ऊंचाई पर ले जाता हूँ, जहाँ कोई दुर्व्यवहार उसे नहीं छू सकता। आवेश और क्रोध को वश में कर लेने से शक्ति बढ़ती है।
देकार्त
रविन्द्र की आलोचना से तिलमिलाए शरदचंद्र ने जब उनके विरुद्ध कुछ करने, कहने की बात उनसे कही तो गुरुदेव बोले –
शरद बाबू! मैं स्वप्न में भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं कर पाउँगा, जैसा वे कर रहे हैं। मेरी चेतना के वातायन से धैर्य, सहिष्णुता और सद्भाव का चंद्र झाँक गया। जो हो, वही तुम्हारा स्वधर्म है।
“All is well and wisely put.”
टिप्पणीयां दुर्भाव का रूप लेकर ब्लागजगत के लोगों में एक तरह की हीन भावना का संचार कर रही है अब हिमांशु साहब. मैं आपसे सहमत हूं इस विषय पर.
“हिमान्शु!! बाबू ! मैं स्वप्न में भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं कर पाउँगा, जैसा वे कर रहे हैं । मेरी चेतना के वातायन से धैर्य, सहिष्णुता और सद्भाव का चंद्र झाँक गया । जो हो, वही तुम्हारा स्वधर्म है। “
सर जी!!
आप की जिव्हा पर सरस्वती विराज्मान है…. आप इनसे परेशान ना हो!!
वैसे सहित्य से ज्यादा इसमे गणितीय खुशबू आ रही है//
आप सही सोचते हैं। पर सोचना भी कभी कभी अधिक हो जाता है। कुछ समय बिना सोचे कैसे रहा जाये, यह जुगत लगानी चाहिये।
हम लोग कम्पल्सिव सोचन डिसऑर्डर से पीड़ित जीव हैं।
हिमांशु भाई दिल छोटा मत करो, ओर ज्यादा सोचो भी मत, अगर अलोचना सही हो तो अखरती नही है, लेकिन जब उस मे तीखा पन, हो जलन हो तो थोडी अखरती है, लेकिन आप इतनी अच्छी ओर सही हिन्दी लिखते है, कि मै भी आप से बहुत कुछ सीख रहा हुं, फ़िर लोग क्यो आप के बारे मै ऎसा लिखते है, इस लिये मस्त रहे, ओर ज्यादा मत दिल पर ले.
धन्यवाद