एक पार्टी का झंडा लिये एक भीड़ मैदान से गुजरी है। अपनी पड़ोस का कुम्हार उसी में उचक रहा है। उसे मिट्टी का दलदल पता है। राजनीति का भी एक दलदल है, वह क्या जाने? बी0ए0 प्रथम वर्ष की छात्र पंजिका में रजिस्टर्ड बच्चे उत्सुकता से हुजूम देख रहे हैं। पास ही लकड़ी की दुकान पर रंदा चलाने वाला मुझसे पूछ रहा है- “सभा कब होगी?” मैने पूछा- “क्यों?” उत्तर मिला- “यूँ ही उत्सुकता है।”
सोचने लगा, उत्सुकता ही है, उपलब्धि हवा है। दलों के दलदल में फ़ँसा आज का हमारा भारतीय समाज मुखौटों का खेल खेल रहा है। भगवान बचायें। वह दिन कब होगा जब सत्ता सुखदाता होगी। मुझे उस कुम्हार, रंदा चलाने वाले कारीगर और गाइड लेकर घूमने वाले बी0ए0 के विद्यार्थी की दबी आवाज सुनाई देने लगी –
डूबने वाली कलम-सा मैं लिखा हूँ
ब्याज तो क्या मूल से भी कम दिखा हूँ
लाभ-शुभ अंकित रहे
पर पिट गये मेरे दिवाले ।
जिस्म पर लिपटे हुए हैं कफ़न
पर कहता दुशाले ।
कर गये कुछ लोग क्यों हमको बबूलों के हवाले।
नेता जी मैदान में ओजस्वी भाषण दे रहे हैं- बहुत से वायदे, बहुत सी मनुहार। नेतागिरी की इस लफ़्फ़ाजी की शल्य-क्रिया जरूरी है। विदा हो बदसलूकी खिदमतगारी। मुझे यह समाज नहीं चाहिये।
उस समाज पर गाज गिरे जिसके तुम नायक।
हस्तिमूर्ख हो सका कभीं भी नहीं विनायक।
आक्रोश जायज है !
“उस समाज पर गाज गिरे जिसके तुम नायक ।
हस्तिमूर्ख हो सका कभीं भी नहीं विनायक।”
वाह मास्साब !
डिटो !
विनायक को कौन पूछता है? सब खल ज्यादा नायक कम हैं!
आक्रोशित स्वर-इसी की दरकार है..यही ज्वालामुखी बन फट पड़ेंगे एक दिन. शुभकामना.
ग़ज़्ज़ब, यही तो मेरे भी स्वर हैं !
पर, ताज़पोशी से पहले सरनेम व जातिसमीकरण का वज़न
के सम्मुख हस्तिमूर्ख का भार हल्का क्यों पड़ जाता है ?
बहुत बढिया लिखा है।
दुसरे विश्व युद्ध से पहले जर्मन के भी यही हालात थे.
बहुत अच्छा लिखा.
धन्यवाद
बहुत बढिया!
अच्छी जानकारी दी है