ऐसी मँहगाई है कि चेहरा ही
बेंच कर अपना खा गया कोई।
अब न अरमान हैं न सपने हैं
सब कबूतर उड़ा गया कोई।
एक झोला हाँथ में लटकाये करीब खाली ही जेब लिये बाजार में घूम रहा हूं। चाह स्याह हो रही है। देख रहा हूँ, मँहगाई की मार से बेहाल हुई जिन्दगी बेढंगी चाल चलने लगी है। मुनाफ़ाखोरी की हवा खोरी-खोरी चक्रमण करने लगी है। अब तो “साँकरी गली में मोहिं काँकरी गरतु है।”
मँहगाई ऐसी, फिर आम राज्य कैसा?
एक रामराज्य की बात सुनी थी। एक आम राज्य की बात देख रहा हूँ। ‘सुराज’ और ‘स्वराज’ की ‘इति श्री रेवाखण्डे’ की सत्यनारायणी कथा का पंचमोध्याय चल रहा है। चूरन लेने में ही कथा को संपूरन करके शंख बजा दी जा रही है। बाबा तुलसी ने ‘सुराज’ के लिये एक अर्थ दिया- “सुखी प्रजा जिमि पाइ सुराजा”, और एक दिया- “जिमि सुराज खल उद्यम गयऊ।” दूसरे अर्थ को उजागर करता हुआ ‘सुराज’ खल राज हो गया। सामान्य जन खा तो ले रहा है, भोजन कहाँ कर पा रहा है। यथार्थ और आदर्श के द्वन्द्व युद्ध में यथार्थ चढ़ बैठा है । सोचता हूँ, ऐसी यथार्थता में मेरे जिले का नक्सलवादी पूत जन्म ले ले तो कैसा आश्चर्य?
अंग्रेजी कवि कीट्स ने नाइटिंगल का गीत सुनकर आह्लादित हृदय से कहा था –
Still let me sleep embracing clouds invain
Keats
And never wake to feel the days disdain.
फ़िर झट ही कीट्स ऐसे ही तिलमिला गया होगा, और कह उठा –
“Fancy, Thou cheat me.”
Keats
मन अजीब हो गया है। जहाँ देखता हूँ आग लगी है। हर माह देखता हूँ, मिट्टी का तेल लेने की लाइन में टिन लेकर खड़ा होता है, मेरे कस्बे का किशोर; धक्का-मुक्की में सिर फ़ट जाता है। इसी भाग्य को लेकर कमोबेश नौजवानी ठोकर खा रही है। वोट की राजनीति, कोट की किरिच और नोट की फ़ितरत में एक व्यूह रचना कर दी गयी है। इसमें सातवें फ़ाटक पर ही सही, अभिमन्यु मारा जायेगा ही। कोई राह निकलनी चाहिये – “यही रात मेरी, यही रात उनकी, कहीं बढ़ गयी है,कहीं घट गयी है।”
ओउम् शांति शांति शांति !
कुछ अपनी-सी लगी आपकी पोस्ट, बहुत बढ़िया
वाह !!
महंगाई ने समस्त भौतिक वस्तुओं को आमजनों से दूर भले कर दिया हो,परन्तु आपको शब्दों का भण्डार दिया है.
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने…बहुत बहुत सुंदर..
यही रात मेरी, यही रात उनकी,
कहीं बढ़ गयी है,कहीं घट गयी है।”
-पूरा निचोड़.
बहुत सुंदर लेख
सुंदर विचार और सुंदर लेख. आभार.
बहुत बढिया पोस्ट है।सार्थक।बधाई।
सभी परेशान है इससे ..कम्बखत जाती भी नहीं …
यह महंगाई हमारे यहा ही क्यू है? हर चीज के लिये तरसॊ लाईन लगाओ, जब कि यही वस्तू काले बाजार मै आम मिलती है, यानि महांगाई हम सब की अपनी ही देन है, आओ इस महंगई को अपनी इमानदारी की वोट मे डाल कर समुन्द्र मे डाल दे, लेकिन सिरेफ़ ईमान दारी की वोट मै ही.
आप ने बहुत सुंदर लिखा, लेकिन हमारे यहां यह सब क्यो है???
धन्यवाद
कुछ तो मंहगाई बड़ी है और कुछ आवश्यकताएँ। दोनों ने मिलकर जीवन कठिन कर दिया है।
घुघूती बासूती
‘अब न अरमान हैं न सपने हैं ‘ यह जानते हुए भी हम रोज सपने देखते है. रोज अपने अरमान को पुरा कराने के लिए पिता जी से नाक चडाते है. सब कुछ जानते हुए भी सपने देखना हमारी प्रवित्ति बन गई है . क्या करे रहीम की बात जो भूल गए है. “देख पराई चुपडी मत ललचाओ जीव”
मंहगाई बढ़े तो आवश्यकतायें समेटने में समझदारी है। और कम से कम में खर्च चलाने की सोच बहुत ऑप्शन देती है।
सैमुअल स्माइल्स की “थ्रिफ्ट” नामक पुस्तक मुझे बहुत पसन्द है।