अपनी कस्बाई संस्कृति में हर शाम बिजली न आने तक छत पर लेटता हूँ। अपने इस लघु जीवन की एकरस-चर्या में आकाश देख ही नहीं पाता शायद अवकाश लेकर। और फिर आकाश को भी खिड़कियों से क्या देखना। तो शाम होते ही, अंधेरा गहराते ही कमरे में बिखरी इन्वर्टर की रोशनी अपने मन में सहेज छत की ओर रुख करता हूँ। चटाई बिछाकर लेट जाता हूँ। तत्क्षण ही छत पर बिखरी निस्तब्धता पास आकर सिर सहलाने लगती है, आँखें कुछ मुँद सी जाती हैं। फिर तो झूम-झूम कर सम्मुख होती हैं अनगिनत स्मृतियाँ, कुछ धुँधली तस्वीरें, और………न जाने किसकी सुधि जो कसकती है अन्तर में, व्यथित करती है।
मैं क्या हूँ? जानना इतना आसान भी तो नहीं!
मुक्ताकाश के नीचे इस लघु शयन में एक स्वर बार-बार प्रतिध्वनित होता है इस एकाकी अन्तर में। मन का निर्वेद पिघलने लगता है। स्वर के पीछे छिपी असंख्य संभावनाओं का चेतस भाव मन को कँपाने लगता है। मैं अचानक ही अपने को ढूँढने लगता हूँ, अपने अस्तित्व की तलाश में लग जाता हूँ।
इस मुक्ताकाश के नीचे मैं स्वयं को प्रबोध देते हुए पूछ्ता हूँ स्वयं से-
मैं क्या हूँ?- क्या सुनहली उषा में जो खो गया, वह तुहिन बिन्दु या बीत गयी जो तपती दुपहरी उसी का विचलित पल; या फिर जो धुँधुरा गयी है शाम अभी-अभी उसी की उदास छाया?
अथवा, जो सम्मुख हो रही है इस अन्तर-आँगन में वही ध्वनि, या किसी सुदूर बहने वाली किसी निर्झर-नदी का अस्पष्ट नाद?
अथवा, बार-बार कानों में जाने अनजाने गूँज उठने वाली किसी दूरागत संगीत की मूर्छित लरी या फिर जिस आकाश को निरख रहा हूँ लगातार, उस आकाश का एक तारा?
मैं क्या हूँ?- जानना इतना आसान भी तो नहीं!
पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य की एक आध्यात्मिक पुस्तक है इसी नाम से – मैं क्या हूँ? तनिक गम्भीर। पठनीय है। यहाँ पढ़ सकते हैं।
छत पर लेटे लेटे कभी न कभी इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाएगा। मुझे भी छत पर चटाई बिछकर लेटना, तारों को तकना, शीतल पवन को मह्सूस करना बहुत पसन्द है। न जाने कितनी ही कविताओं का जन्म वहीं हुआ है।
घुघूती बासूती
सच है – सभी खोज में लगे हैं.
कोशिश करते ही रहें एक दिन होगा ज्ञान।
खुद को नित ही जानना प्रश्न बड़ा श्रीमान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
मुक्त आकाश के नी्चे लेटना प्रकृति के साथ एकाकारता का बोध देता है. तमन्यता बढ कर नये भाव उपजते हैं, और फ़िर कुछ नया घटने की संभावना उतरोतर बलवती होती जाती है.
रामराम.
वाह हिमांशु भाई। बिजली न आने के कारण छत पर लेट जाना।तीखा व्यंगय। बिजली वाले फिर भी शाम को ही बिजली गुल कर देते हैं गाँवों में शायद खुद सो जाते हैं। चूँकि मैंने ब्लॉग पर लिखना बंद कर दिया है इस लिए अब मेरा कमैंट आपको ऐनोनिमस रूप में ही मिलेगा। लेकिन आपका फैन हूँ तो मुझे आना तो होगा ही।
प्रकाश बादल।
चाँद तारों भरे आकाश तले लेटना और उनको निहारना मुझे भी बहुत पसंद है। पर अब मेरे लिए यह सपने जैसा है। और रही बात प्रश्नों की तो न जाने उत्तर कब और कहाँ मिलेंगे।
यही जानने की अभिलाषा ही मनुष्य को यहां से वहॉं मारा मारा फिरने को विवश करती है।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
‘मैं क्या हूँ ?’ यह तो कठिनतम प्रश्न है !
हिमांशु भाई, प्रश्न का उत्तर बड़ा आसान है पर खोजना कठिन। जब खोजते खोजते खुद को जगत में विलीन कर देता है तब इस का उत्तर मिल पाता है।
इसी खोज में सभी लगे हैं ..:) बहुत दिन हुए इस तरह तारों से बात ही नहीं की ..पर यह प्रश्न तो अक्सर दिलो दिमाग में आ ही जाता है
बड़ा कठिन-कठिन सवाल पूछा जाता है भाई-मैं कौन हूं!
आप तो उस वैदिक मानुष की तरह आचरण और ऋचा उदघोष में लग गए हैं ! आप तो चिर प्राचीन और चिर नवीन के समाहित पुंजीभूत स्वरुप को प्राप्त हो रहे हैं ! आमीन !
अद्भुत ! (पढ़ नहीं पाया था इसे !) सचमुच !
यह लेख पढ़कर मुझे लखनऊ में बिताया गया अपना बचपन याद आ गया। रात होते ही हम छत पर सोने चले जाते थे। रात की निशब्दता में दूर-दूर तक की आवाजें साफ सुनाई देती थी – गुजरती रेल गाड़ी, उल्लुओं का बोलना, चमगादड़ों के पंखों की फड़फड़ाहट… एक बार तो मुझे लखनऊ चिड़ियाघर के शेरों के दहाड़ने की आवाज भी साफ सुनाई दी थी। यह मुझे आज तक साफ-साफ याद है।