कोई भाया न घर तेरा घर देखकर
जी दुखी अपना यह खंडहर देखकर।
आ गिरा हूँ तुम्हारी सुखद गोद में
चिलचिलाती हुई दोपहर देखकर।
साँस में घुस के तुमने पुकारा हमें
हम तो ठिठके थे लम्बा सफर देखकर।
अब किसी द्वार पर हमको जाना नहीं
तेरे दर पर ही अपनी गुजर देखकर।
कोई भाया न घर तेरा घर देखकर
जी दुखी अपना यह खंडहर देखकर।
आ गिरा हूँ तुम्हारी सुखद गोद में
चिलचिलाती हुई दोपहर देखकर।
साँस में घुस के तुमने पुकारा हमें
हम तो ठिठके थे लम्बा सफर देखकर।
अब किसी द्वार पर हमको जाना नहीं
तेरे दर पर ही अपनी गुजर देखकर।
लाजवाब गजल हिमांशु जी ।
समर्पण!
अब किसी द्वार पर हमको जाना नहीं
तेरे दर पर ही अपनी गुजर देखकर ।
wah himanshu ji , sunder rachna, sabhi sher khoob, jab “uska ” dwar mil gaya to kahin aur kyun jaayen. wah.
waah!!!
बहुत सुंदर भाई.
रामराम.
समसामयिक एवं सार्थक रचना।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
अब किसी द्वार पर हमको जाना नहीं
तेरे दर पर ही अपनी गुजर देखकर ।
………….अति सुंदर।
हिंदी में गजल.. क्या बात है.. बहुत ही दिलचस्प है
साँस में घुस के तुमने पुकारा हमें
हम तो ठिठके थे लम्बा सफर देखकर ।
बहुत सुंदर भाव.. आभार
वाह, दुष्यन्त और राजेश रेड्डी की याद आ गयी।
सीधा सीधा साफ साफ कहना हर बार प्रभावी व सुन्दर होता है !
चलिए एक बेचैन को सकूं तो मिला !
saral shabdo me sundar abhivyakti…
ऐसा न कर भाई -चरैवेति चरैवेति !
एक ही ठांव पे ठहरोगे तो थक जाओगे
धीरे धीरे ही सही राह पे काह्लते रहिये ! (कुंवर बेचैन ! )
*चलते