इस हिन्दी चिट्ठाकारी में कई अग्रगामी एवं पूर्व-प्रतिष्ठित चिट्ठाकारों की प्रविष्टियाँ सदैव आकृष्ट करती रहतीं हैं कुछ न कुछ लिखने के लिये । मेरे लेखन का सारा कुछ तो इस चिट्ठाजगत के निरन्तर सम्मुख होते दृश्य के साथ निर्मित होता/अनुसरित होता रहा है । कुछ दिनों पहले शिव जी ने एक प्रविष्टि दी । इकबाल के एक शेर के बहाने चिट्ठाजगत में बहुत ही खूबसूरत विमर्श का सामान दे दिया उन्होंने, और क्या कहूँ अरविन्द जी की उस आँख का जो अपनी पुतरी की मनहर गति से कहीं सिमट रहे सम्पुटित अर्थ का लज्जावनत शील भी उघार कर रखने की कामना रखती है !
“हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा’
इकबाल का यह शेर तो सालों से सुनते आये थे पर ठहरे नहीं थे वहाँ । शिव जी के इस शेर को पोस्ट करने के बाद अनूप जी की इसकी रुटीन व्याख्या के बाद अरविन्द जी की टिप्पणी ने एक चिन्तन श्रृंखला दी । आभारी हूँ अभिषेक जी का कि उन्होंने जो दरीचा खोला इस शेर के अर्थ का, उसी ने प्रवृत्त किया कुछ सोचने विचारने के लिये, और अनेकों बार अभिषेक जी की व्याख्या ने ही उंगली थमा सारा चिन्तन क्लेश ही हर लिया । मन उन्मुक्त हुआ और उसने इस शेर के जितने अर्थ-गह्वर खोले आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ । ऋण तो शेष रह ही गया है अभिषेक जी, अनूप जी और अरविन्द जी का ।
“हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा’
इकबाल अपनी इन पंक्तियों में एक ही साथ मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए द्रष्टा और दृश्य दोनों की खबर ले रहे हैं । नर्गिस एक सलोना फूल है । नयनाभिराम तो वह है ही । अपनी खूबसूरती का उसको पता नहीं है । वह एकांत में खिला हुआ वनफूल है । पड़ा है कि कोई उसे पूछ लेता लेकिन बिचारी नर्गिस अपनी ही खूबी से नादान है । उसे यह जानकारी नहीं है कि उसके अन्दर भी खूबसूरती भरी हुई है । वह अपने नूर की दौलत से बेखबर है । रोती रहती है कि मैं नाचीज हूँ । मुझमें कोई न गुण है, न आकर्षण, न गरिमा है, न सुन्दरता । वह हजारों साल से रो रही है कि मैं ऐसी गुणहीन क्यों हुई? यह एक त्रासदी है पूरी मानवता के साथ कि वह अपनी कीमत को जान नहीं पाई । हीरा कचरे में खो गया है । राजा जो सदा सदा का राजा था, अपनी अज्ञानता से रंक बना हुआ है । जो खुद अपना उद्धार नहीं कर सकता, जो अपनी कीमत को स्वयं भूल बैठा है, वह संसार में जगह पाये तो कैसे ? औरों की छोड़ो, वह अपनी निगाह में ही गिर गया है । मुद्दतों बाद कोई आता है और वह कीमती हीरे को पहचानता है । वह हीरे को हीरे की औकात बता देता है । तब वह जान पाता है कि अरे वह कितना गया गुजरा अपने को मान बैठा था ! कोई जागा हुआ न जागे हुए को जगा देता है, तो कीमत समझ में आती है । गुरु ही eye-opener है, वह दीदावर है । ऐसा जानकार जमात में नहीं मिलता । वह हजारों साल बाद आता है और झकझोर देता है इस चेतना के साथ कि जागो ! तुममें भी कुछ है । नर्गिस के साथ कुछ ऐसी ही दुर्घटना हुई है । चमन में वह अपनी बेनूरी पर रो रही है । एक दिन, दो दिन, दस दिन, महीने, दो महीने, साल, दो साल नहीं हजारों साल से उसका रुंआसापन बरकरार है तब कहीं जाकर चमन में कोई दीदावर पैदा होता है, और वह नर्गिस को उसके नर्गिसपना की कीमिया समझा देता है । इकबाल एक आध्यात्मिक शायर हैं, और शायद यह बताना चाहते हैं कि अपने वजूद को पहचानो, रोओ नहीं । तुम सम्राट हो, रंक नहीं । कोई एक यह जानता है और अनजाने को जना देता है । चमन ऐसे ही दीद वाले का तलबगार है । वह यह कहना छुड़ा देता है कि
“मैं हूँ वनफूल / यहाँ मेरा कैसा होना क्या मुरझाना -/ जैसे आया वैसे जाना ।”
दूसरी ओर इकबाल यह दिखाना चाहते हैं कि “गुण ना हेरानो गुणगाहक हेरानो हैं“ । सुन्दरता, आकर्षण, नूर, वैभव और सम्पन्नता कहाँ नहीं है ? लेकिन आँख रहे तब तो दिखायी दे । नर्गिस माथा पीट-पीट कर हजारों साल से रो रही है कि मेरे इस चमन में अंधे ही फेरी लगा रहे हैं । मैं तरस रही हूँ कि कोई जान पाता कि मुझमें क्या है, लेकिन नर्गिस की नेकनीयती, उसके नूर से सभी दूर-दूर ही हैं । किसी को भरपूर नूर का जलवा दिखायी नहीं पड़ता – ” अंधहिं अंधहिं ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत ।“ यह शेर इशारा कर रहा है कि आँख वाले बनो । द्रष्टा बनो तो पगे पगे नर्गिस अपनी खूबसूरती, अपना नूर समेटे तुम्हारे चरणों में बिछ जायेगी । कितना खूबसूरत है यह कहनाकि
” चमन में जा के तब होता है कोई दीदावर पैदा ।”
अपनी नूर पर इठलाती हुई और फिर भी रोती हुई नर्गिस की कितनी जिन्दगी गुजर गयी । यह अविद्या माया है जो ज्ञानियों को भी मोहित किये रहती है । लोग नर्गिस का नूर नहीं पहचानते । हजारों साल बाद किसी की आँख खुलती है और तब वह ’अस्ति’ (It is) को स्वीकार कर पाता है नहीं तो ’भाति’ (It seems) में ही बझा रहता है ।
अतः इकबाल इस शेर में देखने वाले का अज्ञान और दिखायी देने वाले का ज्ञान दोनों को ही विवेचित करते हैं ।
हम भी बताने वाले के ज्ञान और पढने वाले के अज्ञान के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास कर अपने आपको धन्य मान रहे हैं. बहुत ही सुन्दर आलेख. आभार..
विशद मँथन !
बहुत सुंदर मंथन ,आभार .
नरगिस (फिल्मी तारिका नहीं, फूल) को तो पता भी न होगा कि हम उसकी नूरी/बेनूरी पर हलकान हैं। वह तो साल दरसाल ऋत के नियमानुसार खिलती जाती है!
बहुत सुंदर आभार.
विस्तृत चिंतन !!
अच्छी जानकारी दी आपने !!!
वाह हिमांशु आप और अभिषेक जी ने तो मेरा पूरा ज्ञानार्जन ही करा दिया ! बहुत आनंद आया और अर्थ भी हमेशा के लिए बोधगम्य हो गया ! हम नयी पीढी के उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं
हिमांशु जी को नमन !
अरविंद जी और अनूप जी का शुक्रिया तो कर आया था इस कालजयी शेर की व्याख्या के लिये…अपने संदर्भो के नये आयाम जो प्रस्तुत किये, उसके लिये कोटिशः धन्यवाद
जय हो महाराज ! धन्य तो हम हुए.
बहुत सुंदर विवेचन.
रामराम.