राह यह भी है तुम्हारी राह वह भी है तुम्हारी
कौन सी मेरी गली है यह न मैं चुन पा रहा हूँ ।
राह की चर्चा बहुत की पर न चलता रंच भर भी
मैं कहीं का हो न पाया क्षण इधर भी क्षण उधर भी ।
एक क्या अनगिन तुम्हारा बज रहा अनहद बधावा
मैं बधिर अति पास का ही स्वर नहीं सुन पा रहा हूँ ।
द्वार तुम खटका रहे मिटती न पर निद्रा हमारी
विभव तेरा रख न पाता मैं भिखारी का भिखारी ।
एक क्या अनगिनत गीतों का पठाते हो खजाना
गुनगुनाने के लिये पर मैं नहीं धुन पा रहा हूँ ।
माथ पर रख दो हमारे पाँव जी ललचा रहा है
बिन तुम्हारे कौन अपना जो सहर्ष बुला रहा है ।
है सुना बँधते विवश हो प्रेम के ही पाश में तुम
पर अकिंचन मैं नहीं वह डोर ही बुन पा रहा हूँ ।
राह यह भी है तुम्हारी राह वह भी है तुम्हारी
कौन सी मेरी गली है यह न मैं चुन पा रहा हूँ ।
सुन्दर प्रस्तुति। भाई वाह।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत प्यारी कविता हिमांशु ख़ास कर यह लाईनें –
है सुना बँधते विवश हो प्रेम के ही पाश में तुम
पर अकिंचन मैं नहीं वह डोर ही बुन पा रहा हूँ ।
लगता है भाव मेरे हैं कह आप देते हैं -यही तो है कवि का व्यष्टि से समष्टि तक का विस्तार !
क्या आवृत्ति नहीं मिल रही है?
सुंदर कविता.शुभकामनाएं.
रामराम.
आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है
गार्गी
http://www.abhivyakti.tk
मुझे तो ये किसी हिंदी पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित करने वाली रचना लगी ! ऐसी कवितायें वहीँ तो पढ़ी है.. और कहाँ?
अद्भुत कविता …
सुन्दर भाव से सजी अदभुत कविता
मैं कहीं का हो न पाया क्षण इधर भी क्षण उधर भी ।यह पंक्ति पढ़कर ……..
ऐसा लगता है कि ब्लॉग्गिंग की दुनिया में हमारी औकात की सच्चाई बयां की जा रही हो!!
प्राइमरी का मास्टरफतेहपुर
प्रवीण त्रिवेदी के कहे से हुंकारी भर रहा हूं!
द्वार तुम खटका रहे मिटती न पर निद्रा हमारी
विभव तेरा रख न पाता मैं भिखारी का भिखारी ।
एक क्या अनगिनत गीतों का पठाते हो खजाना
गुनगुनाने के लिये पर मैं नहीं धुन पा रहा हूँ ।
bahut sundar..bahut hi sundar
बहुत खूब.. सहज रूप से संप्रेषणीय कविता पढ़वाने के लिए आभार
गली यह अगली है
गले तक गली है
गली यह लगी है
न समझो यह
जंगली है
न जंगली
न ये पगली है
nice poem like it.