न गयी तेरी गरीबी तुम्हें माँगने न आया
खूँटी पर उसके कपड़ा तुम्हें टाँगने न आया ।
दिन इतना चढ़ गया तूँ अभीं ले रहा जम्हाई
गाफिल है नींद में ही तुम्हें जागने न आया ।
एक अंधे श्वान सा तूँ रहा भूँकता हवा में
असली जगह पे गोली तुम्हें दागने न आया ।
खुद रूप रंग रस की जलती चिता में कूदा
उस आग से निकलकर तुम्हें भागने न आया ।
चिथड़े में ही ठिठुर कर सारी उमर गंवा दी
सुधि रेशमी रजाई तुम्हें तागने न आया ।
चिथड़े में ही ठिठुर कर सारी उमर गंवा दी
सुधि रेशमी रजाई तुम्हें तागने न आया ।
बहुत सही कहा.
रामराम.
सुंदर रचना………..
चिथड़े में ही ठिठुर कर सारी उमर गंवा दी
सुधि रेशमी रजाई तुम्हें तागने न आया ।
……….मुझे यह पंक्तियाँ खासतौर से पसंद आयीं।
रचना अच्छी है पर अटपटी है।
bahut hi sunadar sacchi se bhari rachna
भैय्ये तब तो ये दुनिया शर्तिया तेरे लिए नहीं है -चल फूट ले यहाँ से ! वो काम बिलकुल न कर जो तुझे बिलकुल आये ही न ! बिलकुल बकलोल रहके यह निर्मम दुनिया कैसे काटेगा रे तू ?
achche vichar
बहुत दमदार जी। दर्शन भी है और यथार्थ भी।
चिथड़े में ही ठिठुर कर सारी उमर गंवा दी
सुधि रेशमी रजाई तुम्हें तागने न आया ।
–बहुत ऊँची बात कही, वाह!!
बहुत बढिया। इस बब्बर शेर के लिए आभार।
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SBAI TSALIIM