यह देखिये कि बूँदे बरसने लगीं हैं, सूरज की चातुरी मुंह छुपा रही है और ग्रीष्म ने हिला दिये हैं अपने हाँथ और इधर मैं हूँ कि ग्रीष्म के कनकवर्णी चम्पक को ही विस्मृत किये बैठा हूँ। यह कैसे संभव है कि जिस पुष्प की कांचन प्रतिभा से ग्रीष्म की रागिनी धूप भी चमक उठती हो उसे ग्रीष्म के अतीत होने तक भी याद न किया जाय! कवि-समय के उल्लेख में तो राजशेखर ने इसे ग्रीष्म में वर्णित करने की राह ही सुझायी थी-
पर यह बात अलग है कि कालिदास ने इसे वसंत का फूल ही मान लिया। यह संभव भी था वसंत की प्रकृति के हिसाब से कि चम्पा जैसा सुगंधित फूल उसी ऋतु में खिलता। वस्तुतः यह सुरभित करता भी है दोनों ऋतुओं को, और खिलता है वसंत और ग्रीष्म की संधि में। चम्पक (चम्पा) की सुगंध ने बहुत लुभाया है साहित्यिकों को, और रसिकों को भी। आज जब यह पुष्प मन में उतर गया तो रूप से अधिक इसके गंध की माधुरी खिल गयी। वृंत पर अकेले (अकेले क्यों? क्या इसकी गंध वैयक्तिकता की गंध है?) खिलने वाला यह फूल भौंरे को मनमानी नहीं करने देता। झट से झिझक जाती है भ्रमर वृत्ति- अनोखा है यह पुष्प। यह अकेला ऐसा पुष्प होना चाहिये जिसकी उत्कट गंध के कारण भौंरे इनके पास नहीं जाते। बाबा तुलसी को भी यह बात रिझा गयी थी, और यही कारण है कि अयोध्या में राम के बिना भरत का अयोध्या के प्रति राग वैसा ही था- जैसे भौरा चंपक के बाग में हो। सर्वत्र बिखरा हुआ ऐश्वर्य (सुगंध), पर किसी काम का नहीं- “तेहि पुर बसत भरत बिनु रागा/ चंचरीक जिमि चंपक बागा ।”
भारतवर्ष के इस परिचित पुष्प का सौन्दर्य इसके हल्के पीले नारंगी रंग के फूलों से है। यही कारण है कि संस्कृत में यह कांचन, या सुवर्णपुष्प है। “गोस्वामी तुलसीदास” ने तो इस रूप का रहस्य भी खोल ही दिया है अपनी बरवै रामायण में-
“चंपक हरवा गर मिलि अधिक उदोत कन अँगुरी की मुंदरी कंगन होत ..।”
वियोगिनी सीता के गले में झूलकर यह चंपक और भी कनकवर्णी होकर चमक उठा है, और ऐसा सहज ही हो क्यों न, यदि (किसी कवि की पंक्ति से कहूँ तो)-
“सिया सोने की अँगूठी, राम साँवरो नगीना हैं”
वृक्ष-दोहद के संबंध में यह कवि-प्रसिद्धि है कि चंपक रमणियों के पटु-मृदु हास्य से पुष्पित होता है। तो इस सम्मति में कैसा संदेह कि स्त्री-स्मित की सुगंध ही व्याप्त हो गयी होगी इस फूल में अपनी पूरी तीव्रता से! जैसे सम्पुट में ठहरा हुआ विरलतम होता है किसी रमणी का मधुहास, वैसा ही तो खिलता है यह वृक्ष-वृंतों पर शरमाया-सा, पर पूर्णतया अभिव्यक्त और प्रभावी। भारत, इण्डोनेशिया और पड़ोसी क्षेत्रों का असली निवासी यह फूल पूर्वी हिमालय के क्षेत्रों में पूरी ऊर्जा से खिलता है। सदाबहार वृक्ष है यह। इसलिये ही तो अत्यन्त प्रिय है वाल्मीकि और कालिदास को। जितना ही यह सहित्य में वर्णित है उतना ही स्वीकृत है जन-जन में अपनी सुगंध के लिये। देवता के चरणों पर आस्था की सुगंध पहुँचाता है भली भाँति। गर्म-आर्द्र रात्रि में इसकी सुगंध की दूरी नाप नहीं सकते हमसब। यह गूढ़ बात भी तो समझानी है इसे- “फूल डाली से गुँथा ही झर गया, घूम आयी गंध पर संसार में।”
चम्पा का यह गौरव-गीत अक्षुण्ण है। कवि वाल्मीकि ने इसे गाया अपनी रामायण में। कालिदास ने वसंत वर्णन करते हुए ऋतुसंहार में, मेघदूत में। तुलसी, रवीन्द्रनाथ से होती हुई यह यात्रा आधुनिक कवि शलभ श्रीराम सिंह तक आयी। अजित वडनेरकर के शब्दों के सफर का एक पड़ाव यह चंपक भी था। वहीं से खयाल आया कि बिहार के चंपारन जिले का नाम इन चंपक वृक्षों की वहाँ बहुतायत से पड़ा। चम्पक+अरण्य= चम्पकारण्य, बाद में समयगति से चम्पारन। शेष फिर!
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जैसे सम्पुट में ठहरा हुआ विरलतम होता है किसी रमणी का मधुहास, वैसा ही तो खिलता है यह वृक्ष-वृंतों पर शरमाया-सा, पर पूर्णतया अभिव्यक्त और प्रभावी । विरलतम के साथ ही तरलतम भी जोड़ दिया जाय तो ?-मुझे एक प्रिय के रुनझुन मृदु हास्य का स्मरण हो आया !
बहुत जानकारी और उम्दा आलेख!! आभार!
एक शोधपरक, संतुलित और प्रशंसनीय आलेख। वाह हिमांशु जी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आधुनिक विज्ञानं ने चंपा के फूलों में और भी कई रंग भर दिए हैं !! ज्ञानवर्धक जानकारी है चंपारण के बारे में ..!!
आपके शब्द कोश के खजाने से एक से एक हीरे निकल रहे है
"फूल डाली से गुँथा ही झर गया, घूम आयी गंध पर संसार में ।"
खुबसुरत पोस्ट
सुन्दर। चम्पा के वृक्ष सदैव कोमल भावनायें जगाते रहे हैं। यह अनुभूत सत्य है।
इस पोस्ट से तो पुष्पों की सुगंध सीधे मन को हर्षित कर रही है.. बहुत पसंद आई आपकी ये पुष्प चर्चा.. आभार
बहुत सुगंधित पोस्ट. कितने प्यारे फुल और ये वर्णन..
ज्ञानवर्धक आलेख लिखा है जी आपने !
पर ऐसे आलेख लिखने के लिए किसी बहाने की जरूरत क्यों !
ठसक के साथ लिखिए !
बरवै रामायण वाली पंक्ति पढ़ी हुई थी. सहज ही हर्ष की अनुभूति हुई. चंपा पर अच्छा विश्लेषण.
आपकी पोस्ट की गम्भीरता देख कर कभी कभी शक होने लगता है कि मैं ब्लॉग तो ही खोने हूं न।
बहुत उम्दा हिमांशु -साधुवाद !
जैसे सम्पुट में ठहरा हुआ विरलतम होता है किसी रमणी का मधुहास, वैसा ही तो खिलता है यह वृक्ष-वृंतों पर शरमाया-सा, पर पूर्णतया अभिव्यक्त और प्रभावी ।
विरलतम के साथ ही तरलतम भी जोड़ दिया जाय तो ?-मुझे एक प्रिय के रुनझुन मृदु हास्य का स्मरण हो आया !