तुम आये
विगत रात्रि के स्वप्नों में
श्वांसों की मर्यादा के बंधन टूट गये
अन्तर में चांदनी उतर आयी
जल उठी अवगुण्ठन में दीपक की लौ
विरह की निःश्वांस उच्छ्वास में बदल गयी
प्रेम की पलकों की कोरों से झांक उठा सावन
और तन के इन्द्रधनुषी आलोक से
जगमगा उठा मन,
मैं कैसे प्रेमाभिव्यक्ति की राह चलूँ
होठ तो काँप रहे हैं
सात्विक अनुभूति से ।
विरह की निःश्वांस उच्छ्वास में बदल गयी
प्रेम की पलकों की कोरों से झांक उठा सावन
और तन के इन्द्रधनुषी आलोक से
जगमगा उठा मन,
BHAI DIL KA HAR EK KONA INDRADHANUSHI ALOK SE JAGMAGA GAYA HAI …………
होठ तो काँप रहे हैं
सात्विक अनुभूति से ।
WAAH….. WAAH…..WAAH….. WAAH
बेहतर भाव और शब्द संयोजन। ये सात्विक अनुभूति हमेशा जीवित रहे। शुभकामना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
मैं कैसे प्रेमाभिव्यक्ति की राह चलूँ
होठ तो काँप रहे हैं
सात्विक अनुभूति से ।
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सात्विक रचना की सात्विकता को सलाम
बहुत खूबसूरत रचना
वाह बहुत मधुर रचना. शुभकामनाएं.
रामराम.
धुर साहित्यिकता से ओतप्रोत अभिव्यक्ति !
तुम आये
विगत रात्रि के स्वप्नों में
श्वांसों की मर्यादा के बंधन टूट गये
अन्तर में चांदनी उतर आयी
खूबसूरत रचना
होठ तो काँप रहे हैं
सात्विक अनुभूति से ।
गजब की भावार्थ लिए लाइनें हैं ,बधाई.
प्रेम तो सात्विक ही होना चाहिए. बहुत सुन्दर रचना. आभार.
आपकी रचनाएँ बहुत मन भाती हैं
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श्री युक्तेश्वर गिरि के चार युग
मौजदा दौर में सात्विक अनुभूति का ही तो अकाल पड़ा हुआ है …बहुत बढ़िया ..बधाई !!
मौजूदा !
यह अनुभूति ऐसी ही शुभ्र होती है।
अच्छा लिखा आपने।
प्रेमाभिव्यक्ति को बयां करने का आपका तरीका लाजवाब कर देता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
प्रेम की सात्विक अनुभूति मौन को मौन की ही भाषा में कह जाने के लिये धन्यवाद ।