मैंने जो क्षण जी लिया है
उसे पी लिया है ,
वही क्षण बार-बार पुकारते हैं मुझे
और एक असह्य प्रवृत्ति
जुड़ाव की
महसूस करता हूँ उर-अन्तर
क्षण जीता हूँ, उसे पीता हूँ
तो स्पष्टतः ही उर्ध्व गति है,
क्षण में रहकर
क्षण से पार जाने की जुगत –
पार जाने की चरितार्थता ।
पर ढलान पर जैसे पानी
दौड़ता है नीचे की ओर
मैं भी कहाँ ठहर पाता हूँ कहीं ?
वर्तमान का सुख-दुःख, माया-मोह…..
सबको देखता हूँ लुढ़कते हुए किसी ओर ……
आगत प्रेम मेरी प्रतीक्षा में है ।
सुन्दर कविता।
घुघूती बासूती
एक आगतोंनमुख सुन्दर कविता !
वाह…कितने बेहतरीन शब्द और भावों को पिरोया है आपने..
सुंदर कविता..बधाई..
हिमांशु भाई नमस्कार ! खुशी हुई आप का नेट सही हो गया !
सुन्दर लिखा है आपने
बहुत खूब
पर ढलान पर जैसे पानी
दौड़ता है नीचे की ओर
मैं भी कहाँ ठहर पाता हूँ कहीं ?
भावो के सघन प्रवाह नही ठहरे है कही
खूबसूरत रचना
gahan abhivyakti……badhayi
खूबसूरत रचना !
आगत का स्वागत करो मित्र ।
आभार !
-:) 🙂 🙂
एक उम्दा रचना । बहुत खूब ।
bimb adbhoot hain, himanshu ji !!
पर ढलान पर जैसे पानी
दौड़ता है नीचे की ओर
मैं भी कहाँ ठहर पाता हूँ कहीं ?
…man ki 'shyanta (viscosity)' naapi ?
…kitni tez hai ye 'urdhav' gati?
aur 'antas' ki 'dhalan' kitni 'steep?'
बहुत सुन्दर भाव हैं और गम्भीर भी। आपकी साहित्यिक प्रतिभा को मेरा सलाम पहुंचे।
दुर्गापूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सही है मित्र – जीना तो एक एक बूंद पीने से आता है। गट्ट गट्ट गटकने से नहीं!
”वर्तमान का सुख-दुःख, माया-मोह…..
सबको देखता हूँ लुढ़कते हुए किसी ओर ……
आगत प्रेम मेरी प्रतीक्षा में है ।’
गिलासी में समुद्र!
अच्छी कविता..
हैपी ब्लॉगिंग
आपने सुन्दर लिखा है अच्छी कविता….
मैं भी कहाँ ठहर पाता हूँ कहीं?
अच्छी कविता है !
waah