करुणावतार बुद्ध- 1, 2, 3, 4 के बाद प्रस्तुत है पाँचवीं कड़ी-

(चतुर्थ दृश्य )

(सिद्धार्थ तीव्र गति से चले जा रहे हैं  गहन रात्रि है। सहसा आकाश में बादल उमड़ आते हैं, और रिमझिम बूँदाबादी होने लगती है। वे बलात खिंचे-से चले जा रहे हैं, कोई स्वर जैसे उन्हें पुकार रहा है। )

वनदेवता: चलो सिद्धार्थ! तुम्हें वहाँ तक जाना है, जहाँ निखिल यात्रा विश्राम बन कर थम गयी है। जहाँ दिशाओं का स्वप्न नहीं जगा है। जहाँ काल अपने पंख समेट कर सोया है और जहाँ जीवन अमृत का छन्द बना गुंजरित है। तुम्हारी यात्रा वहाँ तक है।

सिद्धार्थ: ओ अमृतकंठ! कोई अंध ज्वाला मेरे प्राणों में लिपटी जा रही है। क्षण भर पहले का स्फुरित पद-न्यास श्लथ हो गया है। पर मैं चल निकला तो चल निकला। निशीथिनी तमिस्रा के दुकूल में धरती लेटी है। पावसी घन चातक को रुलाये दे रहा है। बूँदों से प्रक्षालित पौधे मन मारे नमित खड़े हैं। जुगनू ऐसे लग रहे हैं जैसे तड़ित तरुओं के प्राण निकल रहे हों। बरबस मुझे कोई गहन वन में खींचे चले जा रहा है। गौतम की गति को कौन और क्यों प्रभावित कर रहा है! यह कैसी कल्पनातीत अवस्थिति है, जैसे काल ने सम्पूर्ण वेग से अपना रथ चला दिया है और मैं इस निविड़ता में बहा चला जा रहा हूँ।

वनदेवता: ओ ब्रह्माण्ड  को ज्योतित करने निकले अमल ज्योतिपुंज! ओ अनंत के अभ्र! अपनी तृषित धरती को अमृत दो। बोध-स्रोतस्विनी की सदानीरा धारा सृष्टि को नहला दो। कृतार्थ कर दो जगत की चिर अभिलषित निर्वाण-पीठिका को! कुछ ही कदमों पर एक तपस्विनी का कुटीर तुम्हारी प्रतीक्षा में कब से मुक्त कपाट है। दो प्रवीण ब्राह्मण तुम्हारे संग चलकर पथ-दर्शन करेंगे। मैं वनदेवता तुम्हारा आह्वान कर रहा हूँ।

Buddha

(एक पर्ण-कुटीर दृष्टिगत होती है। वहीं एक मंदस्मिता श्वेतकेशा श्वेतवसना दिव्य नारी बैठी हैं। सिद्धार्थ सादर प्रणाम करके साश्चर्य उस रात्रि में ज्योतित करती  नारी-मूर्ति को निहारने लगते हैं।)

सिद्धार्थ: ओ ज्योतिर्मयी! कौन हो तुम? ओ तरल स्नेहा! कौन हो तुम?

तपस्विनी: वत्स! अभी मैं तुम्हारा वह पता हूँ, जिसे तुम नहीं जानते। मैं वह नेपथ्य हूँ जिसे तुम्हारी आँखें अभी देख नहीं पातीं। सुनो!  मैं तुम्हारे जीवन के महाकाव्य की सरस पंक्ति हूँ। तुम मेरा परिचय स्वतः ही पा जाओगे जब कभीं कोमल कातर कामनाओं से तुम्हारा पद्मगात्र कलुषित होने लग जायेगा, जब क्षुद्र विजय-पराजय का हर्ष-विषाद तुम्हारे करुणा-कलित अंतर को तृषित कर देगा। मैं उस तपोदेश की आत्मा हूँ जहाँ अपावन अश्रु नहीं उगते। मैं उस शून्य की रत्नगर्भा धरित्री हूँ, जहाँ आलिंगन का सुख नहीं। उस निर्वेद की तटवासिनी हूँ जहाँ स्मृतियों का मेला नहीं लगता। तुम्हें तुम्हारी संपदा की खबर देने को ही इधर खींच लिया कि दिग्भ्रमित न होना।

सुनो सत्यसंध! तुम अनेकों बार इन नक्षत्र लोकों के यात्री रहे हो। सुनो बोधरूप! अगणित लोकों में तुम्हारे असंख्य परिचित तुम्हारे तेज-वलय में विलीन हो उठे हैं। मैं तुम्हारे अभिनंदन में ही खड़ी थी। निर्भय होकर आगे बढ़ो। बाधाओं की भीड़ मिलेगी- संगी मत बन जाना! अकेलेपन का बल पहचानना। मैं साथ रहूँगी। मैं तुम्हारे अनंत जीवन की तपस्या हूँ। मैं तुमसे कभी अलग नहीं हूँ। मेरा परिचय तो तुम्हें मिलेगा ही जब तुम परम-पुरुष के संकल्पों के साथ एकाकार हो जाओगे। फिर क्या रह जायेगा तुम्हारे लिये पाना। तुम्हें मेरा परिचय तब मिल जायेगा जब तुम मेरे सर्वरूप के महातीर्थ में निमज्जित हो जाओगे। मैं तुम्हारे पीछे लगी रहूँगी तुम्हारी सुदक्षिणा संगिनी। उठो, चलो!

यह लो, तुम्हारे श्रद्धालु उर, करुणार्द्र चित्त, विरक्त प्राण के बदले यह ज्योतियों की माला है। इसकी दिव्य सुरभि न तुम्हें थकने देगी, न भ्रमित होने देगी। सुनो! जो प्रतीत होता है, वह पूर्ण नहीं होता।  चले चलो! विरमो मत!

(अदृश्य हो जाती है। सिद्धार्थ विमुग्ध हैं।)