एक आलसी का चिट्ठा । गिरिजेश राव का चिट्ठा। स्वनाम कृतघ्न आलसी का चिट्ठा। यहाँ पहुँचते ही होंगे अवाक! टिप्पणी को विचारेंगे, होंगे किंकर्तव्यविमूढ़। अगिया बैताली और स्थितप्रज्ञ- दोनों एक साथ। बिलकुल बाउ की तरह। बाउ, माने भईया का बनाया एक शोख और सुर्ख चित्र। बाउ माने लंठई का असली फॉर्मेट! बाउ, माने ’महालंठ चर्चा’ का चरित्र नहीं, लंठ महाचर्चा का केन्द्रीय चरित्र। यह चरित्र भीतर उतर गया। जो बाहर आया, आपके लिए यहाँ। बाउ-सर्जक को नमन।
पिछली प्रविष्टि से आगे …..
सुखारी की लुगाई ’परबतिया की माई’ और गजकरना की हालचाल लेने में बाउ ने बेमिसाल ’बैताल पचीसी’ रची है। ब्रिटिश काल की जमींदारी प्रथा का बेखौफ लिफाफा खोला गया है। ’रामे राम, रामे दुइ’ की नपनी से मालिक का बखार भरते सुखरिया और गोंजर की नाई चरणन्यास करते गजकरना को वैतरणी पार कराने वाले बाउ का गरुड़ पुराण जोर से कलेजा दबा कर पढ़ना पढ़ता है। इसकी पूर्णाहुति पर चढ़ावा कम नहीं चढ़ा है।
’घरघुमनी’ सुरसतिया की शादी की चहलपहल, उठा-पठक, ताक-झाँक इस पूरे लंठ-महाचर्चा की राधेश्याम रामायण है। यह ज्ञेय भी है, साथ में संज्ञेय भी। इस दुरावमिश्रित प्रेमपात्र की वैवाहिक लीला में बाउ ने बेमिसाल महावीरी ध्वजा फहराई है। ठाकुर नाहर सिंह की बराती कूच का नगाड़े पर ऐसा मारू-राग बजा है कि घरौठा के ’जूझे सकल सुभट करि करनी।” पोखरे के किनारे गोनई नट और बाउ की साधना का साक्षी शीशम का पेड़ कटता है, अगिया बैताली काठी जलती है, मिठाई मिसिर की पुरोहिती चमकती है, बाउ के बैल की घुड़दौड़ होती है, बिरछा, मुन्ना, मनसुख की तीमारदारी परवान चढ़ती है और पँडोही की बिटिया- पूरे गाँव की बिटिया का कन्यादान संपन्न होता है। गाँव के ’ब्याह, उछाह,अनंद’ का यह मनोहारी सजीव वर्णन लंठ महाचर्चा का सुन्दरकाण्ड हो गया है।
ब्याह के गीतों की अजब गुदगुदी होती है। इस आर्टीफिशियल युग की भोजन-थाली में यह ओरिजिनल सोंधा घी इसे सुस्वादु बना दे रहा है। साहित्य की वर्तमान रचनाधर्मिता में इतना सहज प्रवाह सराहनीय है।
बाउ के चरित्र रंजन में लेखक की तूलिका ने अद्वितीय कौशल दिखाया है। ’श्रौत और बैताली परम्परा’ का ’मिश्रित समय’ बाउ के चरित्र को अलख-निरंजन बनाने में सोलहो आने सफल हुआ है। अवधूती रंग और फकीरी मस्ती की प्रस्तुति ने जैसे समय के इस स्वभाव की खूँट पकड़ ली है कि वह आगे ही नहीं पीछे भी चलता है। ’बाउ, कुरबानी मियाँ और दशहरा’ शीर्षक में उन्होंने आदमीयत का विजयपर्व मनाया है। गाँव की गोलबंदी की महावीरी ध्वजा आज के माफिया गिरोहों की छाती में गड़कर जैसे लहर-लहर लहरा रही है। वह स्नेह, सौहार्द्र, सामंजस्य और अपनापन अब सपना हो गया है।
अगहरी गाँव की सामूहिक जीवन-विसर्जन कि वनौषधि-क्रिया राजपूताने के जौहर-व्रत की याद दिला दे रही है। लेखक ने आग से मरण में से राग से मरण का पन्ना बाहर निकाल लिया है। मोहमदीन का प्राणोत्सर्ग पन्नाधाय के बलिदानी तेवर से भी प्रखर हो गया है। कुसुम की कोख बची, तो गाँव बेगाँव होने से बच गये।
लेखक की सधी लेखनी ने प्रतापी बाउ चर्चा को अर्चा के योग्य बना दिया है। गँवईं गली का ऐसा गुलजार अगोपन किस्सा सुनकर क्या मन मसोस नहीं जाता- कहाँ गये वो लोग! जरे जेठ की ठंडई और भरे भादों की भइसवारी अभी पुकारे ही चली जा रही है- “और निबाहब भायप भाई’ ।
कुरबानी मियाँ की कलाबाजी और बाउ की बैशाखी ने बैताली परंपरा का बंटाधार करके नट-नगाड़ियों का लँगोट ढीला कर दिया है। हमें ’दिनकर’ का पूछा प्रश्न साक्षात प्रकट दिखायी देने लगता है-
“तुम रजनी के चाँद बनोगे या दिन के मार्तण्ड प्रखर?
एक बात है मुझे पूछनी फूल बनोगे या पत्थर?
तेल फुलेल क्रीम कंघी से नकली रूप सजाओगे
या असली सौन्दर्य लहू का आनन पर चमकाओगे?
पुष्ट देंह बलवान भुजायें रूखा चेहरा लाल मगर
यह लोगे? या लोगे पिचके गाल सँवारी माँग सुघर?”
विराट पुरुष बाउ की विलक्षण प्रस्तुति करके लेखक ने चतुर्वर्ण का संपृक्त विलयन तैयार कर दिया है- ’ब्राह्मणोस्य मुखमासीत बाहूराजन्यः कृतः…”। अगर-मगर में लेखक को डगर नहीं भूली है। चौमासे की उफनती सरिता को भी कलित कूल दे दिया है। कैसे? कुछ तो किसी मन को प्रयाग बना कर-
आँधियों के बीच त्रिवेणी संगम। उदात्तता की त्रिवेणी से विषपायी आत्मघात की सरस्वती तो लुप्त हो गयी थी। यमुना बची थी-संहार के साँवलेपन को समेटे…..जीवनदायिनी गंगा की धार उमगी।…”
और सबसे अधिक चुलबुली ग्राम्यभाषा की नजाकत से घेराबन्दी करके, ’भनिति भदेस वस्तु भलि बरनी।’-
“बोलत काहे नइखे..”
“कहत के बड़ा डर लागता …”
“सरऊ बड़ी मारब । बोलू…”
“माफ करिह बाबू ! सनेसिया के कार ऐसने होला । कहनाम बा कि असल बाप के बेटा हऊअ त दसहरा के दुपहरिया में नवका दंगल में गड़वा खरिहाने लड़े अइह । तमाशा देखेके मुसमतियो के लेहले अइह”……
“कहि दिहे सबरना के हम त अक्केले आइब, ऊ आपन पूरा खानदान लेहले आई ।”……
“….गजकरना, सबरना…..का जाने केतना बाड़े सौं “।
फिर बारहमासा-
“भादौ गगनगभीर पीर अति हृदय मझारी,
करि के क्वार करार सौत संग फँसे मुरारी,
तजौ बनवारी,…..”
धोखाधड़ी, उजड्डपना और विश्वास का खेल इतना जादुई बना दिया है गिरिजेश जी ने कि लगता है जैसे जगनिक फिर से नया आल्हखंड लिखने बैठ गये हैं। आलसी का चिट्ठा की इस लंठ महापुराण की चर्चा में इति-वृत्त तो औपन्यासिक है, पर मजा काव्य का आता है। यह कुंज कछारे का ऐसा ललित वेणुवादन है, जिस पर रीझते ही बनता है। निर्मलता ने, नेकनीयती ने, निश्छलता ने, निर्विकारिता ने, निर्लोभ ने, निष्ठा ने, निश्चिंतता ने पूरे समाज की नाक रख ली है- ऐसे सच्चरित्र सुचित्रण की बाट जोह रहा है हमारा हिन्दी समाज। अब बस !
लंठ महाचर्चा : एक आलसी का चिट्ठा
बाउ का चरित्रांकन एक आलसी का चिट्ठा की निम्न प्रविष्टियों में है। आग्रह है कि इन्हें पढ़ें, बाउ और खुलेंगे और एक सार्वजनीन चरित्र बन जायेंगे। इन प्रविष्टियों के साथ बाउ केन्द्रित अन्य प्रविष्टियों के लिए गिरिजेश राव के ब्लॉग पर जाएँ और बाउ के अनोखे चरित्र को आत्मसात करें–
1. लंठ महाचर्चा : अथ लंठ महाचर्चा, बाउ हुए मशहूर, काहे?
2. लंठ महाचर्चा : बाउ और परबतिया के माई : पहला भाग, अंतिम भाग
3. लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : भूमिका
4. लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : पहला दिन- एक और दो
5. लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : दूसरा दिन – पूर्वपीठिका
6. लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : दूसरा दिन – एक और दो
7. लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : तीसरा दिन- पूर्वपीठिका
8. लंठ महाचर्चा : बाउ मंडली और बारात एक हजार : तीसरा दिन- एक और दो
9. लंठ महाचर्चा : बाउ, कुरबानी मियाँ और दशहरा-पूर्वपीठिका : एक और दो
10. लंठ महाचर्चा : बाउ, कुरबानी मियाँ और दशहरा : एक और दो
बढ़िया प्रस्तुति..विशेष रूप से पूर्वी भाषा में वर्णित आप की चंद लाइन बहुत ही अच्छी लगी…बधाई हो
बाउ को जब जबर पढा है, हर बार एक नई झुरझुरी सी उठती देखी है। साहित्य सरिता की यह कलकल बहती नदी अपने आप में बेजोड है।
बढ़िया प्रस्तुति..
अब अस लिखवैया न लण्ठ होये न आलसी। और अगर करे इनसिस्ट तो हम उसे मात्र विनम्रता ही मानेंगे/मानते हैं!
चचा और भाऊ द्वारा 'लंठ' शब्द के 'प्रयोग' से प्रेरणा सी हुई थी कि दूसरा पक्ष भी सामने रखा जाय लेकिन पहले भाग के बाद ही महाचर्चा 'महाकथा' का रूप ले बैठी। सम्भवत: सुने हुए तमाम प्रकरण मेरे उपर भारी पड़े।..
. और उस समय पाठकों की उत्सुकता, प्रशंसा और कौतुहल ! बाप रे!! बालसुब्रमण्यमजी से होने वाली लम्बी बातें/चैट और अरविन्द मिश्र जी की लगातार उत्साह बढ़ाती टिप्पणियाँ, सिद्धार्थ का लगाव और आप तो छुपे रुस्तम निकले..किस किस का नाम लूँ? इस श्रृंखला ने मुझे बहुत जनों का अपनापन दिया। .
. बाप की मौत के 8 वर्षों के बाद मुस्काती माँ को देख बाउ का 8 वर्षों बाद ही रोदन लिखते आँखें गंगा जमुना हो चली थीं। …मिठाई मिसिर का सूरज की ओर हाथ उठा वह दुहिता घोष – रोंगटॆ खड़े हो गए थे।
..मोहमदीन की मौत – उस दिन खामोशी में भी गला रूँध गया था। क़ुरबानी मियाँ की मृत्यु, उसके बाद बाउ की प्रतिक्रिया और फिर गोपित भयंकर प्रतिशोध – स्तब्ध रह गया था भैया!
सोचता हूँ कि वह क्या था जो यह सब रचा गया। शायद किसी प्रेत की छाया?…
आज आप की पोस्ट पढ़ते फिर आँखें नम हुई हैं। इतना स्नेह!
क्या ये नम आँखें उस स्तब्धता को तोड़ पाएँगी जो क़ुरबानी मियाँ की कुरबानी से उपजी थी? बाउ तो कुश्ती ही छोड़ दिए! .. भैया, यह 6 दिसम्बर के दिन ही आप को पोस्ट करना था! ..
कथा में अभी बहुत कुछ बाकी है लेकिन वह स्तब्धता ! ..शायद ये नम आँखें उसे बहा पाएँ..देखते हैं..
बाऊ को तो पढना ही पड़ेगा …
अगर समझ नहीं आया तो सरल अनुवाद या व्याख्या तो आप कर ही देंगे…!!
बहुत रुचिकर लगा,अब बाऊ को भी पढवा दो
वाह हिमांशु जी ,बाऊ की चर्चा क्या पूरी समीक्षा हो गयी बाऊ काव्य की !
फिर से याद आया वह सारा मंजर !
.
.
.
गिरिजेश जी कह रहे हैं "कथा में अभी बहुत कुछ बाकी है लेकिन वह स्तब्धता ! ..शायद ये नम आँखें उसे बहा पाएँ..देखते हैं.."
हम भी… देखते हैं…
हिमांशु भाई !
काव्यमय लेखन पढ़कर कौन टिपियाना चाहेगा , है
न त्रिलोचन जी की कविता की पंक्ति — ''….संजीवनी
भाव-माला नीरव चलती है '' |
'' गहरे दुःख में भाषा कहीं छलने न लगे न लगे … '' !
……………………………………… आभार …………………
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ! आपकी लेखनी को सलाम! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
बाऊ की और उनके काल की इस हृदयस्पर्शी कथा और गिरिजेस जी के बारे में बहुत सही लिखा है आपने. धन्यवाद!