आचारज जी का आह्वान सुन लपके ही थे कि तिमिरान्ध हो गये (यूँ फगुनान्ध होने को बुलाये गये थे)। बिजली फिर ब्रॉडबैण्ड- दोनों ही रूठ गये। उस वक्त जो लिखा था, पोस्ट नहीं कर पाया। यह कवित्त प्रस्तुत है, कारण खुद को जोड़ने की क़वायद है महोत्सव से-

(१)
ठौर-ठौर ब्लॉगन पै चुहल हुई फागुन की
बहक-बहक ब्लॉग-भूप कुछ भी कह जायौ है।
गावै राग रागन अस कूट-शब्द-ओट होइ
भाव-रस बिमुख शब्द-कौतुक छा जायौ है॥
रूप-भाव भाव-रूप-भेद ऐसे हिय बैठे
फागुन कौ रंग हाव-हाव में समायौ है।
रीझि औरि खीझि दोउ प्रकटीं हिय साथ-साथ
फागुन यह ’बाउ’ के भागन तें आयौ है॥

(२)
फागुन मतवारो यह ऐसो परपंच रच्यौ,
आतुरी मची जो चित्त चातुरी हेराई है।
अन्तर-अभिलाष बहकि आई इन बैनन में,
खोरि-खोरि दौरि कहत फागुन ऋतु आई है॥
जोई मुँह आवत सो बिबस बयात सबै,
कोई रिसियात जबैं, होरि की दोहाई है।
सखि कै सुरंग-रंग-अंग कौ रंगैंगे आज,
देखो इन बृद्धन पै छाई तरुणाई  है॥


Credit: Flickr

Categorized in:

Ramyantar,

Last Update: June 19, 2021