सौन्दर्य लहरी की पिछली प्रविष्टियों में अब तक कुल 18 छन्दों के हिन्दी भाव रूपांतर प्रकाशित हो चुके हैं। शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान है सौन्दर्य लहरी में। आज प्रस्तुत है पहली , दूसरी , तीसरी, चौथी, पाँचवीं कड़ी के बाद सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 19-23) का हिन्दी रूपांतर।

सौन्दर्य लहरी का हिन्दी भाव रूपांतर

मुखं बिंदुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो
हरार्ध ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथकलाम् ।
स सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यति लघु
त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवींदु स्तनयुगाम् ॥19॥

बिन्दु वदन
युगल पयोधर
बिन्दिकायें अधः संस्थित
पुनः उसके अधःस्थित
जो सुभग त्रिभुज त्रिकोणमय है
कामबीजमयी तुम्हारी कर्षिणी मन्मथ कला वह
ध्यान में जिसके तुम्हारी
कामकला है विराजित
वह विक्षुब्ध कर देता सपदि
विविध वनिता वृन्द को
किन्तु इसकी कौन गणना, बात तो यह तुच्छ सी है
सूर्य-चन्द्र उरोजमयि
यह जो त्रिलोकी है विराजित
कर दिया करता उसे विचलित तुम्हारा ध्यानधारी
हे मदनमादिनि!
मनोभव स्मरकला हे! ॥१९॥

किरंतीमंगेभ्यः किरणनिकुरुंबामृतरसं
हृदित्वामाधत्ते हिमकरशिलामूर्तिमिव यः ।
स सर्पाणां दर्पं शमयति सकुंताधिप इव
ज्वरप्लुष्टान दृष्ट्या सुखयति सुधाऽऽधारसिरया ॥20॥

चन्द्रकान्त सुमणि शिला सम
द्युतिमयी कमनीय काया
अंग अंग बिखेरती
पीयूष रसमयि किरणमाला
यह सुभग लावण्यमय तन
ध्यान में जिसने उकेरा निज हृदस्थल बीच
वह खगपति सदृश
करता शमन है सर्प दर्प विशाल
और जो आक्रान्त हैं ज्वर से उन्हें
निज पीयुषवर्षी नयन कोरक से निहार उबारता
सुख पात्र कर देता
सुधारस वर्षिणी हे! ॥२०॥

तडिल्लेखातन्वीं तपनशशिवैश्वानरमयीं
निषण्णां षण्णामप्युपरि कमलानां तव कलाम् ।
महापद्माटव्यां मृदितमलमायेन मनसा
महान्तः पश्यन्तो दधति परमाह्लादलहरीम् ॥21॥

तुम तड़ितलेखा-सम
ज्योतिर्मयी
सूक्ष्मातितन्वी
ज्योति भी कैसी
कि ज्यों द्युतिमान हों रवि शशि हुताशन
कायस्थित
षट् चक्र कमलों पर
सहसदल पद्म ऊपर
नित्य मायिकमल रहित मन
देवि! परमाह्लादलहरी
दीप्त तेरी इस कला का
हृदय में साक्षात करते
डूबते हैं
समुद योगी वृन्द ॥२१॥

भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणा-
मिति स्तोतुं वांछन्कथयति भवानि त्वमिति यः ।
तदैव त्वं तस्मै दिशसि निजसायुज्यपदवीं
मुकुन्द-ब्रह्मेन्द्र-स्फुट-मुकुट-नीराजित-पदाम् ॥22॥

‘फेर दो मुझ पर कृपा करुणार्द्र लोचन
हे भवानी!’
जो स्तुति अभिलषित
यह कहता वचन है
उसे निज सायुज्य पदवी *
तुम सहर्ष प्रदान करती
सौंपती हो वह चरण पाथोज
जिसका
विष्णु-ब्रह्मा-देवपति के भाल पर सुन्दर विराजित
मुकुट उतारता है आरती अभिराम नित ॥२२॥

*निज सायुज्य पदवी- मुक्ति चार तरह की होती है:
1. सारूप्य (वही रूप प्राप्त कर लेना, जैसे जटायु की मुक्ति -गिद्ध देंह तजि धरि हरि रूपा),
2. सामीप्य (समीप रहना),
3. सालोक्य(वह लोक प्राप्त कर लेना) और
4. सायुज्य (वही हो जाना-’तत्वमसि’ वाला भाव)

 
त्वया हृत्वा वामं वपुरपरितृप्तेन मनसा
शरीरार्द्धं शम्भोरपरमपि शंके हृतमभूत् ।
यदेतत्त्वद्रूपं सकलमरुणाभं त्रिनयनं
कुचाभ्यामानभ्रं कुटिलशशिचूडालमुकुटं ॥23॥
 

शंभु के वामांग का
कर ही लिया तुमने हरण है
पुनः अभीं अतृप्त मन से शेष को भी चाहती हो
क्योंकि तेरे रूप की यह अरुणिमा
प्रत्यक्ष होती प्रकट
शंकर में
विलोचन तीन
आधा चन्द्रमा चूड़ा मुकुट में
नम्र युग कुच भार से
यह अरुणिमा संवलित तेरा रूप
हर अर्द्धांगिनी हे! ॥२३॥