मधुशाला व बच्चन पर फतवे की आंच अभी धीमी नहीं पड़ी होगी। हरिवंश राय बच्चन होते तो ऐसे फतवों के लिए कह डालते-
“मैं देख चुका जा मस्जिद में झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज,
पर अपनी इस मधुशाला में पीता दीवानों का समाज;
वह पुण्य कृत्या, यह पाप करमा, कह भी दूँ, तो दूँ क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा, कब मदिरालय पर गिरी गाज?
यह चिर अनादि से प्रश्न उठा मैं आज करूंगा क्या निर्णय।
मिटटी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन मेरा परिचय!”
यह ‘क्षण भर जीवन’ अपनी ‘क्षणता’ में विराटता का असीम सम्मोहन रखता है। निरंतर गतिशील संसृति में ‘क्षण’ की गहरी अनुभूति विराट के स्वरुप में रूपांतरित हो जाती है। हरिवंश राय बच्चन की कविता ने न जाने कितने गवाक्ष झांके हैं, न जाने कितने फतवों का सामना किया है, न जाने कैसे कैसे आरोप झेले है? फ़िर भी यह कविता- गीतात्मक कविता- कहीं ठहर नहीं गयी, सबको समझाती गयी-
“तीर पर कैसे रुकूं मैं, आज लहरों पर निमंत्रण।”
बच्चन हिन्दी कविता में नया रंग लेकर आए, गीतकार कवि के रूप में जनसाधारण के प्रिय बने, कवि सम्मेलनों से गीत को ऊंचाई दी और खड़ी बोली कविता को एक नया आयाम दे डाला। कविता छायावादी कल्पना के इन्द्रधनुषी आवरण को चीरकर जनसामान्य के बीच आ खड़ी हुई। कविता की सहज, सीधी सरल भाषा में जीवन और यौवन का उद्दाम आवेग भर गया। ‘बच्चन के गीत लोकप्रिय, आरोपित व विवादित भी हुए। उन्हें ‘शराब’ और शराबी का हितचिन्तक मान लिया गया।
हरिवंश राय बच्चन – Harivansh Rai Bachchan
जन्म– २७ नवम्बर, १९०७ – इलाहाबाद। मातृभाषा– हिन्दी । शिक्षा– एम० ए० (इलाहाबाद), पीएच० डी०(कैम्ब्रिज)। व्यवसाय– प्राध्यापक, अंग्रेजी विभाग, इलाहाबाद वि०वि०, इलाहाबाद -१९४१-५२ व १९५४-५५; हिन्दी प्रोड्यूसर, आकाशवाणी, विशेषाधिकारी (हिन्दी), विदेश मंत्रालय- १९५५-५६। पुरस्कार-सम्मान– पद्मभूषण, विद्यावाचस्पति, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार आदि। प्रमुख रचनाएं– मधुशाला, मधुकलश, निशा- निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अन्तर , सतरंगिनी, प्रणय पत्रिका, त्रिभंगिमा, कटती प्रतिमाओं की आवाज, जाल समेटा; क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फ़िर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक; प्रवास की डायरी, डब्ल्यू० बी० ईट्स एंड ओकल्टिज्म आदि।
पर यही तो साहित्य की ‘खेचरी मुद्रा’ है जो बच्चन के काव्य में प्रकट होती है। बच्चन की कविता संवेदना और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से कई मोडों से गुजरती है- कभीं छायावाद की रंगरची हो जाती है, कभीं निराशा व अवसाद के संकेत ग्रहण कराने लगती है, कभीं लोक-धुन की मनहर रागिनी से रागदीप्त हो जाती है तो कभीं युग की संपूर्ण चेतना को अंगीकृत करती मालूम पड़ती है। बच्चन ख़ुद स्वीकारते हैं –
“जहाँ खडा था कल उस थल पर आज नहीं
कल इसी जगह फ़िर पाना मुझको मुश्किल है “
आज बच्चन का जन्म दिवस है। आज के दिन कवि ‘बच्चन’ खूब याद आ रहे हैं एक ऐसे कवि के रूप में जिसने अतिबौद्धिकता के भ्रम जाल को तोड़कर जीवन के यथार्थ को भावना से संपृक्त किया, जिसने ह्रदय की संवेदनशीलता को स्वर दिया और जिसने अनुभूति और अभिव्यक्ति के मणिकांचन संयोग से कविता की शक्ति को नए रूप में परिभाषित करने की कोशिश की। बच्चन की यही कविता अगर संदेह के घेरे में आ जाय, फतवेबाजी का शिकार हो जाय तो बच्चन तो यही कहेंगे-
“किस-किसका दूर करूंगा मैं
संदेह यहाँ हैं जन-जन के । “
बच्चन जी के व्यक्तित्व के बहुत आयाम हैं। और बहुत आकर्षित करते हैं वे सब।
उनका आज आपने स्मरण कराया; बहुत धन्यवाद।
“तीर पर कैसे रुकूं मैं , अज लहरों पर निमंत्रण। ”
मेरे हिसाब से (अज) की जगह (आज) होना चाहिए !!
बहुत सुंदर लेख लिखा है आप ने
धन्यवाद
I am really impressed with your writing skills as well as with
the layout on your blog. Is this a paid theme or did you
customize it yourself? Anyway keep up the nice quality writing,
it is rare to see a nice blog like this one nowadays.