कल के अखबार पढ़े, आज के भी। पंक्तियाँ जो मन में कौंधती रहीं- “अब जंग टालने की कवायद शुरू”। “सीमा पर फौजों का जमावड़ा नहीं”।”गिलानी बोले-कोई भी नही चाहता जंग”।”पाकिस्तान को मिली संजीवनी।””भारत की गैस पर पाक की नजरें।””मुंबई सहनशील है लेकिन घाव अभी भरे नहीं हैं”।”जांच को आगे बढायें, अंतुले को नहीं- मृणाल पांडे”। आदि, आदि।
इन टिप्पणियों का का घाव धैर्य से झेलते हुए मैं ‘भारत’ शब्द का भार उठाने की कोशिश करने लगता हूँ। भारत के जो भी ध्वनितार्थ हों, फलितार्थ एक ही है कि वह गीता के गायक द्वारा उद्बोधित अर्जुन का पर्यायवाची है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
‘भारत’ धर्मसंमूढ चेतः था और तब उसने कृष्ण से पूछा था- “क्या उचित है, मुझे बताओ। और जानते हैं कृष्ण ने तब कौन-सी गुदगुदी पैदा की?
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृत निश्चय,
युद्धस्व विगतज्वर
मामनुस्मर युद्ध च।
कहा- जूझो! इस धर्म संग्राम में अगर तुम चूक गए तो ख़ाक जीयोगे? लोग क्या कहेंगे? कायर कहीं के! इस विषम काल में यह कैसी नपुंसकता? अपमान सहकर जीना कोई जीना है? मौत से भी खतरनाक है यह बचाव। नर्क से भी गयी गुज़री है ऐसी जिंदगी। उठो, अर्जुन, लड़ो! –
कुतस्त्वं कश्मत्ममिदम विषमे समुपस्थितम।
युद्धस्व विगतज्वर – अब देर नहीं करनी, तत्पर होना है
जिस भारत में ‘भारत’ के लिए गीता का यह पांचजन्य निनादित हुआ हो, उसे दुनिया को घायल हुई अपनी देह दिखानी पड़ रही हो, इससे बड़ी शर्म की बात क्या होगी? अब नहीं तो फ़िर कब? अब तो शंका नहीं, समाधान की जरूरत है। कश्मीर को विश्व न्यायालय की झोली में उड़ेलकर क्या पाया है इस साठसाली बूढे स्वतंत्र देश ने? कौन किसका होता है? ‘अप्पदीपो भव’ बौद्धिक नहीं, वैश्विक निराकरण है। ‘बलमुपास्व’ पर का नहीं स्वयं का स्वास्थ्य है। अतः देर करके हम स्वयं को अंधेरी गली में खोते जा रहे हैं। मैं चाहता हूँ पाक की किस्मत नए सिरे से लिख क्यों न दी जाय! ‘शठेशाठ्यम’ पुस्तकों में ही रह जायेगा? पाक को जवाब देकर हम उसका अनहित नहीं करेंगे, उसे उपकृत ही करेंगे, क्योंकि वह स्वयं का फोड़ा पाले है, और फ़िर भी चुप है- “चोर नारि जिमि प्रकट न रोई”।
होटलों में मारे गए निरीह अतिथियों के आँसू कब याद आयेंगे? शहीद हो गए वीर किस घाट लगेंगे? क्या अपमान का घूँट प्यारा लग रहा है? आतंकियों का विद्रूप हास ६० घंटे तक गूंजता रहा, और वह हमारे शौर्य की खिल्ली उड़ाता रहा। राजगद्दी की कुण्डली में लग्न स्थान पर बैठे हुए ग्रहों ने जिनको राजयोग दिया है, अब वे मारकेश होकर ही रहेंगे। इसे नेता न भूलें। तुम्हारा रक्षक तड़पकर मर रहा था, तुम राजनीति का रस ले रहे थे। कौन याद दिलाये इन भाग्यमानों को –
चिराग बन के जले है तुम्हारी महफ़िल में
वो जिनके घर में कभी रोशनी नहीं होती।
रविन्द्र ने कहा था न! “Life is given to us, we earn by giving it.” सच मानें, इतिहास हमें अब अपमानित जिंदगी जीने के लिए माफ़ नहीं करेगा।
Man’s history is waiting in patience for the triumph of the insulted man.
‘दिनकर’ की वाणी में मैं राष्ट्रीय नेतृत्व को पुकार रहा हूँ –
दूर क्षितिज के सपने में मत भूल।
रामधारी सिंह दिनकर
देख उस महासत्य को
जिसकी आग प्रचंड,
दाह दारुण प्रत्यक्ष निकट है
गांधी, बुद्ध,अशोक विचारों से अब नहीं बचेंगे
उठा खड्ग, यह और किसी पर नहीं
स्वयं गांधी, गंगा, गौतम पर ही संकट है।
वो देखो कौन बैठा, किस्मतों को बांचता है
उसे कैसे बतायें, उसका घर भी कांच का है.
पता है ऐब कितने हैं, हमारी ही सियासत में
मगर कब कौन अपना ही गिरेबां झांकता है.
काश यह शवद !!कहा- जूझो ! इस धर्म संग्राम में अगर तुम चूक गए तो ख़ाक जीयोगे ? लोग क्या कहेंगे ? कायर कहीं के ! इस विषम काल में यह कैसी नपुंसकता ? अपमान सहकर जीना कोई जीना है ? मौत से भी खतरनाक है यह बचाव । नर्क से भी गयी गुज़री है ऐसी जिंदगी । हम सब की समझ मै आ जाये.
सच है अगर अब चुक गये डर गये तो हम सब को डुब मरना चाहिये.
बहुत सुंदर लिखा आप ने, धन्य है आप की लेखनी
धन्यवाद
अच्छा लिखा जी।
सही कहा है आज खड्ग उठाये बगैर काम चलने वाला नही है ।