Woman (Source: in.com) |
देखा मैंने,
चल रही थी ‘बस’।
विचार उद्विग्न हो आये
विस्तार के लिये संघर्ष कर रहे
संकीर्ण जल की भाँति।
आगे की दो सीटें सुरक्षित-
प्रतिनिधित्व का दिलाने को विश्वास
और दशा उस प्रतिनिधि की-
अवगुंठित, संकुचित और अनिवर्चनीय।
बस का चालक
स्टीयरिंग छोड़
हियरिंग पर ध्यान देता हुआ,
फागुन का महीना –
जिसमें भौजी की खतरे में
पड़ी अस्मिता।
मूक बैठा मैं,
देखता रहा उसे,
वह- बेसहारा, सशंकित, झुकाये सिर,
नाखून कुटकते दाँत और धड़कता हृदय
सुन रही थी कथा
अस्मिता की नग्नता की
अवगुंठित, संकुचित और अनिवर्चनीय।
बस में बैठी एक युवती
कुटकती दाँत
सुन रही थी गीत फागुन-
खो रही थी-
अवगुंठित, संकुचित और अनिवर्चनीय।
सदा की तरह ही सुंदर और सशक्त.
Bahut hi sahi kaha aapne…
Itni sundar bhasha Bhojpuri…par uske chalu geet ashleelta ke paryaay ban gaye hain..Aur sarvjanik sthalon par jab vyakti sunne ko baadhya hota hai to sachmuch lagta hai,pighle sheeshe kano me utar rahe hain..ek stree ke liye unhe sunna kitna kashtkari hota hai,bahut hi saarthak abhivyanjna prastut ki hai aapne.
इस ब्लॉग पर कविता ?
@Aarjav
इस ब्लोग पर कवितायें पहले भी आती थीं, पर नया प्रयत्न के उद्भव के बाद इस पर कवितायें नहीं पोस्ट करता था. अब नया प्रयत्न का विलय करने के बाद इस पर ही सक्रिय रहूंगा. सूचना इस पोस्ट कृपया मेरे नये फीड को सबस्क्राइब करिए पर भी है.
हमतो सोच रहे थे की आप कैसे झेल पाये. सुंदर रचना. आभार
फागुन आभासी जगत को भी अब व्याप्त रहा -हाँ सार्वजनिक परिवहन के कुछ खतरे तो हैं हीं और बसंत का ग्रीन सिग्नल !
bahut sunder rachna hai
बहुत ख़ूब, सुन्दर प्रस्तुति
——
गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम
अवगुंठित, संकुचित और अनिवर्चनीय!!!
हिमांशु जी !!
क्लिष्टता से परे क्या नाम दूँ !!पर कई बार बहुत अधिक समय दे कर समझना पड़ता है !!
सच्ची में आपने आम हो चुका दृश्य को भी भावों से भर दिया ……
बस का चालक
स्टीयरिंग छोड़
हियरिंग पर ध्यान देता हुआ,
फागुन का महीना –
जिसमें भौजी की खतरे में
पड़ी अस्मिता।.
सुन्दर।
अति सुंदर, लगता है अब तो बसंत आ ही गया.
धन्यवाद
चित्र सा बाँध दिया ….आख़िर के शब्द खासे दिलचस्प लगे ….
अवगुंठित, संकुचित और अनिवर्चनीय!!!
अच्छी रचना की प्रस्तुति के लिये साधुवाद स्वीकारें….
खूबसूरत …