[मैं चिट्ठाकार हूँ, पर … हिन्दी ब्लॉगिंग के धुरंधर लिक्खाड़ों की लेखनी पर सहज प्रकाश डालने का लघु उद्यम है। छोटी टिप्पणियाँ होंगी पर काम की होंगी और उस ब्लॉगर के प्रतिनिधि लेखन का वैशिष्ट्य निरूपित करने का प्रयास होंगी। हर प्रविष्टि में एक-दो ब्लॉगर समेटे जायेंगे।]

मैं चिट्ठाकार हूँ, पर अनूप शुक्ल जैसा तो नहीं , जिनकी लेखनी उनके प्राचुर्य का प्रकाश है । यह प्राचुर्य का प्रभाव ही है न, जिससे मानव अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अपने को बहुतों में, क्षुद्र को विराट में प्रतिष्ठित देखना चाहता है। क्या आन्तरिक आकांक्षा ही इस लेखनी के मूल में है? या आत्माभिव्यक्ति? ले देकर यह आत्माभिव्यक्ति ही तो मानव का चिरन्तन स्वभाव है। ’बर्क’ (Burke) की मान लें तो “आत्मप्रकाश की भावना ही हर प्रकार की कला का मूल है ।” अनूप शुक्ल जैसा कोई क्यों नहीं? क्योंकि आत्माभिव्यक्ति का सच्चापन- मतलब उसमें स्वाधीनता का आनन्द और कृत्य का संयम- अनूप शुक्ल हमेशा बरकरार रखते हैं ।
 

मैं चिट्ठाकार हूँ, पर ज्ञानदत्त पाण्डेय जैसा तो नहीं- जैसा बहुधा होना चाहता हूँ। विषय वस्तु की चाकरी करने वालों की भीड़ में मैं भी हूँ- पर ज्ञानदत्त पाण्डेय क्यों होना चाहता हूँ? हम दो चीजें ही न निरूपित करते हैं किसी लिखावट में- पहली, लिखा क्या गया है? और दूसरी, कैसे लिखा गया है? मतलब रचना का उपादान या विषय-वस्तु, और रचना का रूप। अंग्रेजी में ’मैटर’ (Matter) और ’फॉर्म’ (Form)। मैं सोचता हूँ कई बार कि सारा चिट्ठाजगत ज्ञानदत पाण्डेय को क्यों नहीं पढ़ता, यह जानने के लिये कि उपादान (मैटर) रचना की आत्मा नहीं हो सकता। वह तो स्थिर जगत का अंग है। वह किसी समय, किसी युग, किसी व्यक्ति की संपत्ति नहीं। यह ’मैटर’ तो सबका है, और सब दिनों का है। उसमें अपने या किसी के लिये कोई नवीनता नहीं होती। यह मैटर तो ’मूल्य’ धारण ही करता है तब, जब रचनाकार की आत्मशक्ति उसमें संयुक्त होती है। बाहरी दुनिया से प्राप्त सभी मैटर- अच्छे-बुरे, परिचित-अपिरिचित, क्षुद्र-साधारण- सभी जब रचनाकार की आत्मशक्ति से तुष्ट होकर रचना के आश्रय में आ जाते हैं, तब तत्क्षण ही लगने लगता है, अरे! यह तो वह नहीं, यह तो कुछ और है, नया कुछ और।

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’मैं चिट्ठाकार हूँ, पर….’ अगली किन्हीं कड़ियों में सुविधानुसार जारी रहेगा….