एक आलसी का चिट्ठा। गिरिजेश भईया का चिट्ठा, स्वनाम कृतघ्न आलसी का चिट्ठा। यहाँ पहुँचते ही होंगे अवाक! टिप्पणी को विचारेंगे, होंगे किंकर्तव्यविमूढ़। अगिया बैताली और स्थितप्रज्ञ- दोनों एक साथ। बिलकुल बाउ की तरह। बाउ, माने भईया का बनाया एक शोख और सुर्ख चित्र। बाउ माने लंठई का असली फॉर्मेट! बाउ, माने ’महालंठ चर्चा’ का चरित्र नहीं, लंठ महाचर्चा का केन्द्रीय चरित्र। यह चरित्र भीतर उतर गया। जो बाहर आया, आपके लिए यहाँ। बाउ-सर्जक को नमन।
बाउ लेखक की पैनी दृष्टि से तराशा और प्राणों के रस से सींचा हुआ एक बड़ा अलबेला पात्र है। यह गर्वीली ग्राम्य गिरा के गंगाजल से पिण्डीकृत गाँव का गोवर्धन है। गल्ले पर रखा हुआ खलिहानी अन्न की राशि बढ़ाता है। अन्नपूर्णामयी ’पयोधरीभूत चतुःसमुद्रा’ कामधेनु है। वह गणेश है, भले ही गोबर का। ’बाउर’ बाऊ हुआ हो यह संभावना लग रही है लेकिन ’बाबू’ के बाउ होने की प्रामाणिक मुहर है। गाँव की माटी का यह बाबू गुदड़ी का लाल है। कचरे में हेराये हीरा को तराश लेने वाली यह श्रौत परम्परा सराहनीय है। ’क्या भूलूँ, क्या याद करुँ’ की ललक में ’भूले बिसरे चित्र’ पर कूँची फेरने लगा तो परती परिकथा उजागर हो गयी। सिद्ध कर दिया है कि है अपना हिन्दुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में। विपरीत पंचतंत्र की शैली में जैसे प्रतिमा नाटक लिखा जा रहा हो।
लंठ महाचर्चा : गिरिजेश राव का अप्रतिम सृजन
लेखक लंठ महाचर्चा के अन्तर्गत जिस ’लंठ’ की चालीसा पारायण करने में मशगूल है, वह नितान्त अपना है। गँवई मनई की भलमंसई, नंगई, हेकड़ई, मुँहफटई, सुघरई की इतनी मनमोहिनी कसीदाकारी का ठाला हो गया था, सो लेखक ने इस अभाव को पूरा किया। चालीस वर्ष के पूर्व के गाँव का यह ’बाउ’, यह पहलवान देखने को क्या आँखें नहीं तरस जायेंगीं। तब की ऐसी ’सेक्सलेस सोसाइटी’ की अकूत मर्दानगी को अकूत दाम देकर भी खरीदा जा सकता है क्या?
’लंठ’ लट्ठ से बना लगता है, जिसका बखान करते जीभ नहीं थकती। ’सोझघत्ता, बेबाक। लाठ भी लंठ की , लट्ठ की ही गुरुदक्षिणा है- बीच बचाव करने वाला, दूध का दूध पानी का पानी करने वाला। अतिक्रमण करने वाले को लंठ (लट्ठ, लाठ या भोजपुरी में कहें तो लाठा) ठोंक-ठठा कर ठीक कर देगा। ऐसे हवा-पानी की आपूर्ति से इस क्षेत्र के प्रदूषण को अवश्य ही शाप लगेगा। एतदर्थ ऐसे लोक-लालित्य नैवेद्य का स्वाद छक कर चखाने वाली परोसी थाल देखकर जीभ का पानी टपक जाय तो इसमें आश्चर्य नहीं।
बाउ जिस कारनामे से मशहूर हुए उसे ’विदुरनीति’ से बचाकर ’चाणक्यनीति’ में शामिल करा दिया है लेखक ने। भरे नाद में चभोरी हुई मरिचा की बुकनी ने कितने रमरतिया का बिना लोटा लिये निपटान बन्द करा दिया, यह क्या साधारण बात है, या बेबात की बात है। ’नारी जने धूर्तता’ की ’भर्तृहरि शतक’ की गंध (दुर्गंध या सुगंध नहीं ) यहाँ मिले बिना नहीं रहती-
निषिद्ध जगह अवश्य ताँक-झाँक करनी चाहिये। समाज की बुराइयाँ ऐसे ही जगह में पनपती और फलती और फूलती हैं।
अतः अथ लंठ महाचर्चा का प्रथमोध्याय ही सत्यनारायणी कथा की वह पहली शंख है जो पंचमोध्याय के पवित्र चरणामृत और स्वादिष्ट चूरन-हलुआ बटने का निमंत्रण पठा देती है।
विषय गूढ़ है पर कराहे का गुड़ है, जिसमें ’लिटका’ फंसाने का स्वाद है और इस पर चीनी की चासनी बलिहारी है।
जय हो महालंठ की !!
जय हो बाउ-भाऊ की !!
महालंठ की बाउ-भाऊ मस्त है जी जय हो
बा भैया त बाऊ हावी हो ही गए …मगर बहुत दिनों से दिखे नहीं
लगता है उनही के गोहरावे खातिर ई शुरू किये बाटिन राऊर !
अच्छी रचना।
वाह भाई !
[पक्का बनारसी हौ…
लेकिन सायद जल्दबाजी करत अहन …]
अभी तक तो मैंने 'हर हर महादेव ' ही सुना है आपके
श्रीमुख से ,आगे का …………….. ऐसा अवसर भी आये ……………….
आपकी शैली लेखक से आपकी आत्मीयता का अहसास कराती है …
वैसे यत्र-तत्र संयोगतः लट्ठ के दर्शन हमें भी हुए हैं … पर लाभान्वित
इतना नहीं हो पाया कि ' सुधार-आयोडेक्स ' से दिलो-दिमाग ( देह नहीं ) को
क्षमतावान बना सकूं … ऐसा लट्ठ-पात या लंठ-पात
मुझ पर भी हो … हर हर महादेव ………
गिरिजेशजी और बाऊ का परिचय प्राप्त हुआ .. अब समझ आया .. हर प्रविष्टि पर आपको क्यों पुकारने लगते हैं :)….ये आत्मीयता बनी रहे …शुभकामनायें …!!
अरे भैया, ये क्या कर दिए! एक ब्लॉग कथा के चरित्र पर लेख, वह भी धारावाहिक ? लगता है बाउ कुछ अधिक ही प्रभावित कर दिए। धन्य हुआ प्रभु, आभारी कह कर इस अनुकम्पा को लघु नहीं बना सकता।
..लेकिन भैया लोग क्या कहेंगे? पहले भी एक बार ….
ब्लॉगरी का व्यक्तिगत पक्ष अब बहुत तनु हो गया है।
देखिए, वाणी गीत क्या कह गईं!
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लिखते रहिये,
पढ़ रहे हैं… बाऊ मुझे भी बहुत पसन्द आया था।
लोग क्या कहेंगे ? कुछ तो लोग कहेंगे !
बाउ क्या किसी गिरिजेश राव के हैं, या मेरे हैं, या किसी-किसी के हैं । बाउ तो सबके हैं ।
अब कोई यह न कहे कि ’गिरिजेश राव के बाउ सबके हैं” !
ओह, तो ये है लंठ का मतलब। हमें तो अब पता चला।
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आखिर पुकार ही लिया न हिमांशु को 🙂 ….!!
जे बात ….जे तो भैया होना ही था देर सवेर…बहुत अच्छा हुआ कि सवेर सवेर हो गया …..अब बस क्रमश: …और जारी है …के आगे जाके नयन ..अटक जाते हैं ….अब तो सच्चाई के शरणम हईये हैं …बाऊ धरोहर हैं ..और लंठ भी …और इनको लाने वाले गिरिजेश भाऊ तो….पता नहीं का हैं ….शब्दे नहीं है जी …
बहुत बडिया पढ रहे हैं मन लगा कर शुभकामनायें
अच्छी कद काठी का यह बनारसी चरित्र बम्बई में एक बिल्डिंग में रखवालों की टीम के इंचार्ज के रूप में देखा था। बड़ी बड़ी मूछें। सदा मुरेरते रहने की अदा। और रोबीले चेहरे पर बड़ी आंखें।
चन्द्रशेखर आजाद याद आते थे।
मुझे लगा था कि बंबैया लुंगाड़ों को यही चरित्र "ठीक" कर सकता है!
इस लंठ-बखान मैं देर से आवै की माफी चाहत हैं भैया. हम तौ बाऊ की पहली कड़ी पढ़ते ही गिरिजेस की लेखनी के कायल हो गए.