कौन-सी वह पीर है !
अभीं आया नहीं होता वसन्त
तभीं उजाड़ क्यों हो जाती है वनस्थली,
क्यों हवा किसी नन्दन-वन का प्रिय-परिमल
बाँटती फिरती है गली-गली,
और
किसी सपनीली रात में क्यों
कोयल चीख-चीख उठती है…सोती नहीं!
क्यों झूम-झूम उर्मिल पयोधि
चूमता है सदैव ही चन्द्र किरण
पर निज अंतराल-गत सलिल सम्पदा
लुटा देता है दिनमणि को,
और
क्यों दीप-लौ पर पतंग-बालिका
धोती है अपना कलेवर !
वेदना कैसी कि विकल हो चकोर
चुँगता है पावक का अंगारा,
क्यों चन्द्र अहर्निश फिरता है,
अपलक निहारता ध्रुव तारा,
और
नित्य ही नीरव आकाश से
क्यों निशा सुन्दरी
अपनी आँखों के मोती ढरका देती है !
विकल हूँ, पहचान लूं मैं
कौन-सी वह पीर है ?
कि लघु पादप भी ललक
लहराता है नभ -चुम्बन हित,
और धरती भी स-यत्न
अपनी संपुटित सम्पदा
भाँति-भाँति खोती है !
भाई बहुत सुंदर रचना है यह आपकी.
बहुत खूबसूरत कविता ..वाह …कितने सुन्दर बिम्बों से सजाया है …अदभुत!!!!
ब्रह्माण्ड
बहुत ही बेहतरीन रचना …. बधाई..
गणेश चतुर्थी पर्व पर हार्दिक शुभकामनाये….
जीवन के मसलों को उसके निर्माण की नींव खोंद कर क्रूरता को बाहर निकाल लाने वाली सृजानात्मक ऊर्जा इस कविता में दीखता है।
आपको और आपके परिवार को तीज, गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत से फ़ुरसत में … अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा, “मनोज” पर, मनोज कुमार की प्रस्तुति पढिए!
सुन्दर भावमय अभिव्यक्ति। गणेश चतुर्थी पर्व पर हार्दिक शुभकामनाये।
बहुत सुन्दर कल्पना. परीक्षा में एक पद्यांश देकर भावार्थ बाताने कहा जावे तो निश्चित ही हम फेल हो जायेंगे.
एक रुमान ,एक व्यथा .एक संचरण -वाह !
अति उत्तम रचना !
चिदानन्द की अमर व्यथा !
बहुत सुंदर –
असीम वेदना झलक रही है –
उच्च कोटि की कविता –
शुभकामनाएं –
शायद वही पीर जो कवि भी बना देती है !
पीडा में भी इतना शब्द-सौन्दर्य! बहुत सुन्दर!
सुन्दर बिम्बों से सजी बेहतरीन प्रस्तुति के लिए धन्यवाद … गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ
बहुत सुंदरतम रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत ही अद्भुत रचना हिमांशु भाई …कमाल की भावाभिव्यक्ति है ….
अद्भुत शब्द संयोजनयुक्त सुन्दर कविता।
@ परीक्षा में एक पद्यांश देकर भावार्थ बताने को कहा जावे तो निश्चित ही हम फेल हो जायेंगे…
मुश्किल है भावों को पूरी तरह समझना , मगर जितना समझा … अद्भुत …!
सुंदर बिम्बों व सशक्त शब्दों के सहारे नेह बंधन से बंधी मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
सुंदर बिम्बों व सशक्त शब्दों के सहारे नेह बंधन से बंधी मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए ढेरों बधाई।
सेजिया से सइयाँ रूठि गइलें हो रामा
कोयल तोरी बोलियाँ
रोज तू बोलेलु साँझ सबेरवा
आज काहें बोलि आधि रतिया हो रामा
कोयल तोरी बोलियाँ।
…
इस चैती की याद आ गई।
शब्द सम्पदा के लिए आप की कविताएँ पढ़नी चाहिए। रोमांटिक काव्यधारा की एक पुरानी अंग्रेजी कविता में भी इस तरह के भाव हैं। शब्द याद नहीं आ रहे। जाने आप क्या क्या याद दिला देते हैं!
मैं जो भूल चुका हूँ उसकी भी टीस उभर आती है। शब्दों की यातुविद्या है यह!
परम्परा भावो से निर्मित होती है या विचारों से ? इस कविता में जो भाव हैं उनकी एक परम्परा दिखायी देती है आपके लिटरेरी कैनन में . इस कविता को समझने से पहले उसे समझ लेना ज्यादा जरूरी है . मेरे पास इसकी अपनी व्याख्या तो है लेकिन मै आपकी भी बात इस बारे में सुनकर ही किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुचना चाहता हूँ !
परम्परा भावो से निर्मित होती है या विचारों से ? इस कविता में जो भाव हैं उनकी एक परम्परा दिखायी देती है आपके लिटरेरी कैनन में . इस कविता को समझने से पहले उसे समझ लेना ज्यादा जरूरी है . मेरे पास इसकी अपनी व्याख्या तो है लेकिन मै आपकी भी बात इस बारे में सुनकर ही किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुचना चाहता हूँ !
क्यों झूम-झूम उर्मिल पयोधि
चूमता है सदैव ही चन्द्र किरण
पर निज अंतराल-गत सलिल सम्पदा
लुटा देता है दिनमणि को,
और
क्यों दीप-लौ पर पतंग-बालिका
धोती है अपना कलेवर !
sundar prastuti .
.
Good post keep up the good work..
अत्यंत सुन्दर, भावप्रवण रचना….
सुन्दर शब्द संयोजन,अप्रतिम बिम्ब कविता को प्रभावी बनाते हैं, प्रश्न पीर को पहचानने का विकल करने वाला ही है…
प्रशंसनीय!
शुभकामनाएं….