साहित्य क्यों ? (Why Literature ?) : मारिओ वर्गास लोसा (Mario Vargas Llosa) प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक म...
साहित्य क्यों ? (Why Literature ?) : मारिओ वर्गास लोसा (Mario Vargas Llosa)
प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक महत्वपूर्ण, रोचक लेख का हिन्दी रूपान्तर । 'लोसा' साहित्य के लिए आम हो चली इस धारणा पर चिन्तित होते हैं कि साहित्य मूलतः अन्य मनोरंजन माध्यमों की तरह एक मनोरंजन है, जिसके लिए समय और विलासिता दोनों पर्याप्त जरूरी हैं । साहित्य-पठन के निरन्तर ह्रास को भी रेखांकित करता है यह आलेख । इस चिट्ठे पर क्रमशः सम्पूर्ण आलेख हिन्दी रूपांतर के रूप में उपलब्ध होगा । पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी कड़ी के बाद प्रस्तुत है छठीं कड़ी ।
प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक महत्वपूर्ण, रोचक लेख का हिन्दी रूपान्तर । 'लोसा' साहित्य के लिए आम हो चली इस धारणा पर चिन्तित होते हैं कि साहित्य मूलतः अन्य मनोरंजन माध्यमों की तरह एक मनोरंजन है, जिसके लिए समय और विलासिता दोनों पर्याप्त जरूरी हैं । साहित्य-पठन के निरन्तर ह्रास को भी रेखांकित करता है यह आलेख । इस चिट्ठे पर क्रमशः सम्पूर्ण आलेख हिन्दी रूपांतर के रूप में उपलब्ध होगा । पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी कड़ी के बाद प्रस्तुत है छठीं कड़ी ।
चलें, हम एक मजेदार ऐतिहासिक पुननिर्माण का प्रयास करें. हम एक ऐसे विश्वकी परिकल्पना करें जिसने कविता या उपन्यास न पढ़ा हो.ऐसी क्षयग्रस्त सभ्यता में,जिसमें गुर्राहटों या वनमानुषी चेष्टाओं से लटपटी शब्दावली हो, कुछ खास तरहके विशेषणॊं को जगह नहीं मिल पायेगी .वे विशेषण होंगे- क्विजोटिक(quixotic), काफकेस्क (kafkaesque), रैबेलेशियन (Rabelaisian), ऑरवेलियन (Orwellian), सैडिस्टिक (sadistic) मासोचिस्टिक (masochistic) - इन सबकी अपनी उत्पत्ति भूमि साहित्यिक है. बिलकुल पक्की बात है कि हमें अपवित्र लोग मिलेंगे, स्वपीड़क मिलेंगे, उत्पीड़क भावना वाले लोग मिलेंगे. लोग असामान्य रूप से भुक्खड़ और अनियंत्रित असीम क्रोध वाले होंगे. ऐसे द्विपाद होंगे जो जबर्दस्ती तकलीफ पहुँचाने वाले या कष्ट प्राप्त करने वाले हॊंगे . लेकिन अपनी संस्कृति के मूलाधार के द्वारा निषिद्ध अपने इन अतिरंजित व्यवहारों का हमें कुछ भी ज्ञान नहीं होगा, न हम कुछ सीख पायेंगे कि मानवीय स्थिति के लिए आवश्यक गुण क्या हैं . हम अपने उन क्रिया कलापों का संधान नहीं पायेंगे जो कारवेन्टस(Cervantes), काफ्का(Kafka), रिवेलियस(Rabelais), ऑरवेल(Orwell) डिसेड (de Sade) और सचर-मसाक (Sacher-Masoch) हमें बता गए हैं.
जैसे ही उपन्यास 'डन क्वीजोट डि ला मन्क' (Don Quixote de la Mancha) सामने आया, इसके पहले पाठकों ने इस ख्याली पुलाव पकाने वाले स्वप्नद्रष्टा की खूब हँसी उड़ायी, और ऐसा ही उपन्यास के शेष पात्रों के साथ भी किया . लेकिन आज हम जानते हैं कि 'कैवलेरो डि ला ट्रिस्टे फिगरा' का उन स्थानों पर प्रेत देखने को बल डालना जहाँ पवन चक्कियाँ थीं, बड़ी ही उदारता पूर्ण बात है, उसका जो बेतरतीब व्यवहार प्रतीत होता है वह भी वास्तव में श्रेष्ठतम औदार्यमय कार्य ही है, और सांसारिक कष्टों के विरोध का साधन है -- इस आशा के साथ कि इस पीड़ा को परिवर्तित कर दिया जाय . हमारी आदर्शों की संचेतनायें और हमारी आदर्शवादिता जो सकारात्मक मूल्यों की सुगंध से संकेतित होती हैं, वैसी नहीं होतीं जैसी हैं, न उसके सम्मानित मूल्य ही स्पष्ट हो पाते यदि ये कारवेन्टस की समर्थ प्रतिभा के द्वारा उपन्यास के नायक में अवतरित न कर दिये गये होते . यही बात उस छोटी यथार्थवादी स्त्री क्वीजोट (Quixote), एम्मा बॉवेरी (Emma Bovary) के बारे में भी कहा जा सकता है, जिसने प्रेम और विलासिता के लिए बड़ी गर्मजोशी से संघर्ष किया जिसका ज्ञान उसे उपन्यासों से हुआ. तितली की तरह उड़ती हुई वह आग की लपट के अत्यंत नजदीक पहुँच गयी और आग में जल मरी.
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Mario Vargas Llosa |
जन्म : २८ मार्च, १९३६
स्थान : अरेक्विपा (पेरू)
रचनाएं : द चलेंज–१९५७; हेड्स – १९५९; द सिटी एण्ड द डौग्स- १९६२; द ग्रीन हाउस – १९६६; प्युप्स –१९६७; कन्वर्सेसन्स इन द कैथेड्रल – १९६९; पैंटोजा एण्ड द स्पेशियल -१९७३; आंट जूली अण्ड स्क्रिप्टराइटर-१९७७; द एण्ड ऑफ़ द वर्ल्ड वार-१९८१; मायता हिस्ट्री-१९८४; हू किल्ड पलोमिनो मोलेरो-१९८६;द स्टोरीटेलर-१९८७;प्रेज़ ऑफ़ द स्टेपमदर-१९८८;डेथ इन द एण्डेस-१९९३; आत्मकथा–द शूटिंग फ़िश-१९९३।
विशेषण 'ऑरवेलियन'(Orwellian), 'कॉफकेस्क'(Kafkaesque) का पहला भतीजा, भयंकर संत्रासकारी क्रोध को ध्वनित करता है, असीम भद्दगी की अनुभूति जगाता है - ऐसा बेढंगापन, बेतुकापन दिखाता है जो सर्वप्रभुता सम्पन्न बीसवीं शताब्दी के तानाशाहों ने पैदा किया था, जो बड़े शौकीन, निर्दयी और इतिहास में वर्णित पक्के तानाशाह थे, जिनके कार्य और अधिकार के वशीभूत समाज के सदस्यों के अनेकों दल हुआ करते थे. 1984 में जॉर्ज ऑरवेल (George Orwell) ने ठंढभरी अभिशप्त झाड़ियों में बड़े साहब (Big Brother) द्वारा दमन की गयी मानवता का वर्णन किया है, उस सबसे बड़े साहब द्वारा, जिसने प्रभूत आतंक और तकनीक का संयोग साधकर स्वतंत्रता, सहज निरंतरता और समानता का उन्मूलन कर दिया और समाज को मशीनी परिचालन का मधुमाखी का छाता बना दिया. इस दुःस्वप्नमयी दुनिया में भाषा भी शक्ति की जी हुजूरी करती है और परिवर्तित हो चुकी है 'नौकरशाहों एवं राजनीतिज्ञों की छलनामयी शब्दावली '(newspeak) के रूप में'. सारे आविष्कारों और व्यक्तिनिष्ठ गुणों से पवित्रीकृत हो गयी है यह, जनसामान्य स्थितिमयता में रूपान्तरित हो चुकी है, ताकि इस उपक्रम में व्यक्ति की दासता एकदम पक्की हो जाय . यह सत्य है कि 1984 की अनर्थकारी भविष्यवाणी आगे नहीं निकल पायी और सोवियत यूनियन की संपूर्ण साम्यवादिता जर्मनी और अन्य दूसरी जगह संपूर्ण धुर दक्षिणवादी राजनीतिक धारा की राह में अग्रसर हो गयी, और इसके बाद यह चीन में ह्रासोन्मुखी होने लगी और समय के दोष से भरित क्यूबा और उत्तरकोरिया में भी इसका यही हाल हुआ . लेकिन खतरा कभीं भी टला हुआ नहीं है, और ऑरवेलियन' शब्द अभी भी खतरे की उद्घोषणा कर रहा है, और इसको समझने में हमारी मदद कर रहा है .
क्रमशः--
पूरे लेख को निम्न कड़ियों से क्रमशः पढ़ा जा सकता है -
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-1
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-2
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-3
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-4
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-5
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-6
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-7
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