सौन्दर्य लहरी के छन्दों के अनुवाद के क्रम में कुल 31 छन्दों के अनुवाद अब तक इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्य शंकर की इस विशिष्ट कृति का पारायण गहन आनन्द एवं विभोरता की उपलब्धि है। आज पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं के बाद प्रस्तुत है नौवीं कड़ी के रूप में सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 32-35) का हिन्दी रूपांतर।

सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद

स्मरं योनिं लक्ष्मीं त्रितयमिदमादौ तव मनो
र्निधायैके नित्ये निरवधि महाभोग रसिकाः ।
भजंति त्वां चिंतामणि गुणनिबद्धाक्ष वलयाः
शिवाग्नौ जुह्वंतः सुरभिघृत धाराहुति शतैं ॥३२॥

उक्त वर्णित मंत्र
उसके तीन वर्ण प्रथम पृथक कर 
’काम-योनि-श्री’ त्रयी को 
आदि में योजित किए नित 
महाभोगरसज्ञ 
निरवधि सतत भजते हैं तुम्हीं को 
अक्ष चिन्तामणि सुमाला युक्त 
शंकर वह्नि में नित धेनुघृत की धार से 
शत आहुती दे हवन करते 
मंत्रविद् विद्वान तेरा 
सर्वमंगलदायिनी हे !॥32॥

शरीरं त्वं शंभोः शशि मिहिर वक्षोरुह युगं 
तवात्मानं मन्ये भगवति नवात्मानमनघम् ।
अतः शेषः शेषीत्ययमुभय साधारणतया 
स्थितः संबंधो वां समरस परानंदपरयोः ॥३३॥

शंभु की काया तुम्हीं हो 
चन्द्रमा रवि युग पयोधर 
मानता आत्मा तुम्हारी 
शंभु की निष्पाप आत्मा 
अतः 
इन दो शेष-शेषी में 
समान तुम्हीं स्थिता हो
हे भगवती माँ ! 
समरसा 
अति परानन्दस्वरूपिणी  ॥33॥

मनस्त्वं व्योम त्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि 
त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् ।
त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्व वपुषा 
चिदानंदाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे ॥३४॥

मन तुम्हीं, तुम व्योम 
तुम मारुत, अनल हो 
सलिल, भू हो
ये सभी परिणाम तेरे ही
नहीं कुछ भी अपर हैं
विश्ववपु के रूप में
परिणत स्वयं को कर विलसती
चिदानन्दाकार
भावमयी तुम्हीं
शिवअंगना हे! ॥34॥

तवाज्ञाचक्रस्थं तपन शशि कोटि द्युतिधरं 
परं शंभुं वंदे परिमिलित पार्श्वं परचिता।
यमाराध्यन् भक्त्या रवि शशि शुचीनामविषये
निरालोकेऽलोके निवसति हि भालोक भुवने ॥३५॥

कोटि रवि शशि ज्योतिमय 
जो दिव्य आज्ञाचक्र तेरा 
परिमिलित शिवपार्श्व वामा 
वहाँ परचित परम शिव को 
ध्यान में धारण किए 
साधक परम आराधनामय भक्ति संयुत,
भानु शशि पावक रहित स्वयमेव भासित
लोक ज्योतिर्मान में  
अविरत निरातंकित भुवन में 
मोदमग्न निवास करता है सदा 
शिवसंयुता हे! ॥35॥