शैलबाला शतक: स्तुति काव्य: सवैया 49-60
छोड़ैलू तू न कबौं हमके हमहीं तोहके हइ अम्ब भुलायल
मोर करी एतना के दुलार सनेह से नैना तोहार छछायल
पूत के लागत चोट पै होत है हाय करेज मतारी को घायल
अइसन पीर भरा तोहरे हित पंकिल प्रान रहै पगलायल ॥४९॥
भोग क जूठन पत्तल चाटत त्यागि के प्रीति परोसल थाली
खोज के तू थकबू जग में हमरे अस पइबू न पूत कुचाली
मो सम पापी न पाप विनाषिनि तों सम जोरी बनी है निराली
पंकिल कारिख पोतनहार पै तूँ रखवार सदा मुँहलाली ॥५०॥
छोह न छीजै दा आपन तूँ चाहे मारा मुआवा घरे से निकाला
आग में भूँजा पहार से झोंका या खउलत तेल कराह में डाला
चाहे हॅंसावा रोआवा गवावा या पंकिल बन्द करा मुँह ताला
पै अपने सुधि के दुधवा कै न ठाला कबौं करिहा गिरिबाला ॥५१॥
ज्ञानी गुनी न धनी जननी हमरी फुहरी मति अवगुन पूरी
चाल कुचाल कहाँ ले कहीं मुँह राम रटीं रखि काँख में छूरी
अवगुन पंक में डूबल कै पँखुरी धरि काढ़ा रखा मत दूरी
चाकर राखि मजूरी में दा निज पंकज पाँव की पंकिल धूरी ॥५२॥
नाहिं बली मन मानै छली थकलीं बिधि कोटिन्ह दाँत निपोरी
पापन कै परस्यो पकवान निहारि न छूटत जीभ चटोरी
चोट चपेटन में लटि पंकिल पूत तोहार करै हथजोरी
का पइबू मुअले के मुआइ दयामयि माइ बना न कठोरी ॥५३॥
जापै फिरै करुना कोनवा सोनवा बरिसै वोहि रंक की झोरी
अंधहिं सूझत मुरुख बूझत धावत पंगु पहार की ओरी
पारबती पसिजा कर राखि कृपानल अँवटल दूध कटोरी
पंकिल पूत के ले गोदिया बनि जा हिमशैलसुता लरिकोरी ॥५४॥
जानी न कवनें दिना तन से मोरे जीवन कै सुगना उडि जइहैं
काँपत बा टँगरी पँखुरी धइ के यम कै दूतवा घिसियइहैं
रात दिना छछनी जियरा अँखियान के कोर से लोर छँछइहैं
पंकिल माई बदे बिलखाई दयामयि ऊ दिनवाँ कब अइहैं ॥५५॥
जौ सच हौ जननी जग में जे करी जवनें फल चाखा
तौ सत देंह धरे पर भी न कबौं हमरी पुरिहैं अभिलाषा
पाप के पेड़ क सोर कबारा कि फेर कबौं पनपै मत साखा
आपन पंकिल प्रीति दिया धरि बारा उमा हमरे उर ताखा ॥५६॥
एक न छ छ अरी घेरले जे जहैं हमैं पाई तहैं हुरपेटी
काम अहेरी कुसंग के जाल में लेत विचार बिहंग लपेटी
माई बिना बिपदाइल पूत के के अपने अँकवारी में भेंटी
पंकिल के बिसरइया न मइया हिमालय की दुलरइतिन बेटी ॥५७॥
क्लेसन में कुँहुसै जिनिगी मति भ्रष्ट ढँकी अघ के चदरा
धमधूसर के उर ऊसर में बरसी कब तोर कृपा बदरा
कहिया खोजिया करबू मतवा बितलीं केतना रोहिनी अदरा
सुभ कौन मुहूरत सोचैलू धाम घरी में जरै नौ घरी भदरा ॥५८॥
में में करै केतनो बकरी पर जइसे छुरी न तजै निठुराई
तइसइ काम कसाई कुघात करै न सुनै थकलीं रिरियाई
का जग मात करीं जिनिगी भर जियै के बा छठियै में ओझाई
सूझै इहै कि उमा पग धै बिलखा मन पंकिल माई हो माई ॥५९॥
होइहैं हँसाई तोरो बहुतै उधिराई जो माई ई बात अनोखी
पंकिल दोखी तनय जमलैं अस शीलमई मँहतारी की कोखी
तू अस मोही कबौं सुत की सह पावै लू का खर सेवर खोंखी
पंकिल पाप कि तोर दया का गर्हू बा बिचार तराजू में जोखी ॥६०॥
भाव की इतनी गहरी अभिव्यक्ति कि सुपरिचित भाषा न होने पर भी ग्रहण करने में कहीं कोई व्यवधान नहीं आया .अर्थ में उतरती चली गई ,पूरा पढ़ कर ही विराम लिया .लोक-भाषा के ऐसे मनोरम प्रयोग हेतु आभार !
लोक का सौन्दर्य है ही ऐसा कि वह किसी भी सीमा को पार कर जाता है और प्रत्येक अनुभूति को स्पर्श भी करता है!
आपकी टिप्पणी का आभार।