A Screenshot of Qasba

मैं ठीक अपने कस्बे की तरह एक कस्बे (क़स्बा -रवीश कुमार का ब्लॉग) का जिक्र करना चाहता हूँ जो मेरे कस्बे की तरह रोज तड़के चाय की भट्ठियों के धुँए के बीच आँखे मुँचमुँचाता, सजग होता-सा दृष्ट होता है; जो अंगड़ाई लेकर उठता है और चाय की चुस्कियों के बीच अपनी संवेदना, अपनी जागृति के घूँट भरने लगता है। मैं जिस कस्बे का जिक्र कर रहा हूँ वहाँ अनुभूति बहुत दूर से अपने संकेत ग्रहण करती है, और अपनी प्रासंगिकता स्पष्ट करती हुई सार्वजनीन बन जाती है ।

मैं ‘रवीश कुमार’ के चिट्ठे की चर्चा कर रहा हूँ । रवीश कुमार कस्बाई आदमी हैं, उन्हें कस्बे का रिदम (rhythm) मालूम है । शब्द की बनावट-बुनावट से रवीश जी वाकिफ हैं। हूक कहाँ से उठ रही है-जानते है रवीश और उस हूक के लिए शब्द की अनिवार्यता या स्वीकार्यता को अच्छी तरह समझते हैं। मैं अपनी इस बतकही में ‘क़स्बा’ की अक्टूबर माह की दस लिखावटें (Posts) अपनी कई जिज्ञासाओं, स्वीकारोक्तियों एवं अनिवार्य प्रतीतियों के लिए संदर्भित कर रहा हूँ । रवीश कुमार की ‘हिन्दुस्तान दैनिक’ की ‘ब्लॉग-चर्चा’ की प्रेरणा ने मुझमें चिट्ठाकारी का भाव भरा – तो यह उस ऋण के प्रतिपूर्ति का भी प्रयास है, हो सकता है।

रवीश अपने कस्बे में बिल्कुल टटकी अनुभूतियाँ व्यक्त करते हैं । इन अनुभूतियों के शब्द रोज ब रोज की स्वाभाविक गतिविधियों से उपजते हैं और जाने अनजाने न जाने कितने मुहावरे, कितने सूक्ष्म तथ्य प्रकट कर देते है–

“अविश्वाश को कई बार सच की परछाइयाँ मिल जाती हैं। इससे सच नहीं बन जाता।” (क़स्बा : ‘मेरीदलील तेरी दलील से सफ़ेद ‘ : बुधवार, १ अक्टूबर,२००८)

“ई-मेल और एसएमएस के जमाने में भी शब्द सिर्फ़ एक बीप साउंड बन कर रह गए हैं।” (क़स्बा : ‘वेलकम तू सज्जनपुर‘ : शुक्रवार, ३ अक्टूबर,२००८)

“पता ही नहीं चलता। हम जागते हुए जितना बाहर बोलते हैं, उससे कहीं ज्यादा अपने भीतर बोलते हैं।” (क़स्बा : ‘ये जो मन की सीमा रेखा है‘ : रविवार, १९ अक्टूबर,२००८)

रवीश की भाषा सहज स्वाभाविक ,सकुचाती परन्तु अभिव्यक्त तीव्रता की भाषा है। इसकी एक विशेषता लक्ष्य किए जाने योग्य है – ठहरते विलगते वाक्य, हर वाक्य की अपनी निजी संरचना परन्तु इनके युग्म से बनता है एक कठोर भावानुबंध। ‘कहानी : नयी कहानी’ में ‘निर्मल वर्मा के गद्य पर लिखते हुए ‘नामवर सिंह‘ जो कहते है, उसकी जमीन बदलकर, सन्दर्भ बदलकर रवीश कुमार के लिए क्यों न कहा जाय –

“उनका गद्य ‘शुद्ध गद्य’ है – ठेठ वाचक शब्द, विशेषणहीन संज्ञाएँ, उपमा रहित पद तथा स्वतंत्र वाक्य। अलग-अलग देखने पर हर शब्द मामूली, हर वाक्य साधारण है, लेकिन पूरा भाव जबरदस्त है। ” (नामवर सिंह : ‘कहानी : नई कहानी’ )

चिट्ठाकारी में रवीश कुमार का अपना अनोखा अंदाज है। उनमें एक मनोहारी वैचारिकता है । विचारों में डूबते उतराते रवीश दृष्टि के दास बन जाते हैं। दृष्टिकोण से शुरू होते हैं परन्तु बाद में ‘कोण’ खो जाता है, ‘दृष्टि’ बच जाती है; ‘view’ गुम हो जाता है, ‘vision’ दिखने लगता है —

“कल सुबह तुम्हारे सपनों की नौकरी
रात भर जागकर कर रही होगी इन्तजार
गुलाबी रसीद वाले होठों से चूम लेगी तुमको
एक दम से गरीब नहीं होगे तुम, न खत्म होंगे
नौकरी में आसमान छूने के तुम्हारे सपने ।” (क़स्बा : ‘ग्यारह बजे का एसएमएस‘ : बुधवार, १५ अक्टूबर,२००८)

रवीश जी ने अपने ‘कस्बा’ से चिट्ठाकारी में नया आयाम जोड़ा है । विश्लेषण से इतर कहें तो रवीश कुमार अप्रत्यक्षतः चिट्ठाकारों को कुछ मंत्र, कुछ सरोकार दिए जाते हैं- पाठ पढ़ा जाते हैं –

(१) चिट्ठे जन सरोकार से जुडें,
(२) चिट्ठों की अभिव्यक्ति ‘सामान्य’ से जुड़े और अनुभूति ‘विशिष्ट’ से,
(३) चिट्ठे प्रदर्शन का पर्याय न बनें, उनमें गति और संगति का सामंजस्य हो। आदि, आदि।

रवीश अपना ‘कस्बा’ लिखते हैं, उसमें अपने वैचारिक एवं भावात्मक संसाधनों का खुल कर प्रयोग करते हैं, नए चिट्ठाकारों, उल्लेखनीय चिट्ठाकारों को संदर्भित करते हैं, ‘हिंदुस्तान दैनिक’ में ‘ब्लॉग वार्ता’ लिखते हैं – शायद अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद। ‘ब्लॉग वार्ता’ की ‘कमेंट्री’ करते हुए रवीश कुमार वस्तुतः चिट्ठाकारी का अघोषित इतिहास लिख रहे होते हैं । मैं हर बुधवार इसे पढ़कर सोचने लगता हूँ – ‘क़स्बा’ की ‘कमेंट्री’ कौन करेगा? रवीश तो नहीं ही।

मैं दो चिट्ठों का अनुकरण (follow) करता हूँ – ‘क़स्बा’ और ‘रचनाकार’। पर हमेशा ‘कस्बा’ पर जाकर कुछ ‘कहने का मन करता है’।

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Last Update: September 17, 2022